इस्मत चुगताई…बेबाक लेखिका

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कौन ऐसा है जो सुप्रसिद्ध लेखिका इस्मत चुगतई के नाम से परिचित न हो। इस्मत ऐसी ‘अश्लील लेखिका’ थी जिसकी कहानियों में लोग ‘सेक्स’ ढूंढ कर पढ़ा करते थे। इस्मत चुगतई की कहानी ‘लिहाफ़’ 1942 में अदब-ए-लतीफ़ नाम की साहित्यिक पत्रिका में छपी थी। यही वो कहानी है, जिससे इस्मत चुगतई की पहचान बनी, या …

कौन ऐसा है जो सुप्रसिद्ध लेखिका इस्मत चुगतई के नाम से परिचित न हो। इस्मत ऐसी ‘अश्लील लेखिका’ थी जिसकी कहानियों में लोग ‘सेक्स’ ढूंढ कर पढ़ा करते थे।

इस्मत चुगतई की कहानी ‘लिहाफ़’ 1942 में अदब-ए-लतीफ़ नाम की साहित्यिक पत्रिका में छपी थी। यही वो कहानी है, जिससे इस्मत चुगतई की पहचान बनी, या यूं कहें कि बदनामी हुई। इस कहानी ने इस्मत आपा के ऊपर अश्लील लेखिका का टैग चस्पां कर दिया। आज जिस इस्मत चुगतई को हिन्दी-उर्दू साहित्य लेखन की पहली स्त्रीवादी लेखिका कहते हैं, वो अपने ज़माने में अश्लील कहलाती थीं। उनकी कहानियों को फूहड़ कहा गया। ‘लिहाफ़’ के कारण उन पर लाहौर कोर्ट में मुक़दमा चला। कहानीं में मौजूद समलैंगिकता को अश्लील माना जा रहा था। आप सोच भी सकते हैं, 1942 में कोई महिला समलैंगिकता पर लिख रही है। देखा जाए तो इस कहानी में समलैंगिकता के अलावा बाल शोषण भी दिखता है, लेकिन तब यह मुद्दा शायद सोच से परे था।

‘लिहाफ़’ के बारे में ख़ुद इस्मत चुगतई कहती हैं….

‘उस दिन से मुझे अश्लील लेखिका का नाम दे दिया गया। ‘लिहाफ़’ से पहले और ‘लिहाफ’ के बाद मैंने जो कुछ लिखा किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया। मैं सेक्स पर लिखने वाली अश्लील लेखिका मान ली गई। यह तो अभी कुछ वर्षों से युवा पाठकों ने मुझे बताया कि मैंने अश्लील साहित्य नहीं, यथार्थ साहित्य दिया है। मैं खुश हूं कि जीते जी मुझे समझने वाले पैदा हो गए। मंटो को तो पागल बना दिया गया। प्रगतिशीलों ने भी उस का साथ न दिया। मुझे प्रगतिशीलों ने ठुकराया नहीं और न ही सिर चढ़ाया।

मंटो खाक में मिल गया क्योंकि पाकिस्तान में वह कंगाल था। मैं बहुत खुश और संतुष्ट थी। फिल्मों से हमारी बहुत अच्छी आमदनी थी और साहित्यिक मौत या जिंदगी की परवाह नहीं थी। ‘लिहाफ़’ का लेबल अब भी मेरी हस्ती पर चिपका हुआ है। जिसे लोग प्रसिद्धि कहते हैं, वह बदनामी के रूप में इस कहानी पर इतनी मिली कि उल्टी आने लगी। ‘लिहाफ़’ मेरी चिढ़ बन गया। जब मैंने ‘टेढ़ी लकीर’ लिखी और शाहिद अहमद देहलवी को भेजी, तो उन्होंने मुहम्मद हसन असकरी को पढ़ने को दी। उन्होंने मुझे राय दी कि मैं अपने उपन्यास की हीरोइन को ‘लिहाफ़’ ट्रेड का बना दूं। मारे गुस्से के मेरा खून खौल उठा। मैंने वह उपन्यास वापस मंगवा लिया। ‘लिहाफ़’ ने मुझे बहुत जूते खिलाए थे। इस कहानी पर मेरी और शाहिद की इतनी लड़ाइयां हुईँ कि जिंदगी युद्धभूमि बन गई।’

इस्मत इस पुरुषप्रधान समाज में महिलाओं के किस्से उनकी ज़ुबानी सुनाती थीं। महिलाओं से जुड़े मुद्दे उनकी कहानियों के केंद्र में होते थे। इसलिए उनकी कहानियां अख़रती थी। गिने-चुने लोग ही उन्हें बोल्ड कहा करते थे। आज भी वो समाज तैयार नहीं हुआ जो इस्मत चुगताई की कहानियों को असहज हुए बिना सुन सके।

-प्रत्यक्ष मिश्रा

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