इराक में संकट बरकरार
इराक एक बार फिर राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में पहुंच गया है। यह न केवल इराकी जनता बल्कि पूरी दुनिया के लिए चिंता की बात है। राजनीतिक अस्थिरता के मुहाने पर खड़े इराक में 10 महीनों से राष्ट्राध्यक्ष है न कोई मंत्रिमंडल। 2010 में भी इराक में ऐसी ही स्थिति बनी थी जब 289 दिनों …
इराक एक बार फिर राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में पहुंच गया है। यह न केवल इराकी जनता बल्कि पूरी दुनिया के लिए चिंता की बात है। राजनीतिक अस्थिरता के मुहाने पर खड़े इराक में 10 महीनों से राष्ट्राध्यक्ष है न कोई मंत्रिमंडल। 2010 में भी इराक में ऐसी ही स्थिति बनी थी जब 289 दिनों के गतिरोध के बाद नूरी अल मलिकी दूसरी बार प्रधानमंत्री बने थे।
इराकी सुरक्षाबलों के साथ सोमवार को सोमवार को भिड़ने वाले शक्तिशाली मौलवी मुक्तदा अल सदर के सशस्त्र समर्थकों ने पीछे हटना शुरू कर दिया है जिससे शांति बहाल होने की उम्मीद जगी है। इराक की सेना ने भी राष्ट्रव्यापी कर्फ्यू की समाप्ति की घोषणा कर दी है जिससे तात्कालिक समस्या के टलने की उम्मीद जगी है हालांकि, बड़ा राजनीतिक संकट अब भी बरकरार है। हालात की गंभीरता को देखते हुए इराक के अंतरिम प्रधानमंत्री मुस्तफा अल-खादिमि ने मंगलवार को कहा कि अगर राजनीतिक संकट बरकरार रहता है तो वह अपने पद से इस्तीफा दे देंगे।
गत वर्ष अक्टूबर में हुए चुनाव में अल सदर की पार्टी ने सबसे ज्यादा सीटें जीती थीं लेकिन बहुमत की सरकार बनाने से पीछे रह गई थी। इसके बाद से अल सदर के शिया समर्थकों और ईरान समर्थित शिया विरोधियों के बीच झड़प होती रहती थी जिसने सोमवार को हिंसक रूप ले लिया। मुक्तदा अल सदर ने इऱाक की राजनीति में इस निर्णायक भूमिका तक पहुंचने के लिए लंबा सफर तय किया है। उनके पिता मोहम्मद सादिक और ससुर मोहम्मद बाकिर दोनों इराक के प्रभावशाली धर्मगुरु थे।
दोनों को ही सद्दाम हुसैन ने मार डाला था। 2003 में जब अमेरिका ने सद्दाम हुसैन को फांसी पर लटका दिया उसके बाद मुक्तदा अल सदर ने अल सदरिस्ट आंदोलन की शुरुआत की, जिसमें हजारों लोग उनके साथ जुड़े। दो दिन पहले अल सदर ने जब ये ऐलान किया कि वे राजनीति छोड़ेंगे तो उनके समर्थक सड़कों पर उतर आए।
इस बार विरोधी का विरोध न होकर, समर्थन में विरोध का माहौल बना है, जो एक तरह से मौलाना सदर का शक्ति परीक्षण है। सवाल ये है कि ये परीक्षण करवा कौन रहा है। दुनिया के कई देशों में इस तरह की हिंसापूर्ण घटनाएं हो रही हैं और सरकारें अस्थिर हो रही हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ऐसे हरेक मामले पर चिंता तो जाहिर करता है, लेकिन उसका कोई प्रभाव नजर नहीं आ रहा है। शांति और स्थिरता के समर्थक सभी नेताओं और देशों को अब इस पर विचार करना चाहिए कि आखिर ऐसी उथल-पुथल से फायदा किसे होता है और इन राजनैतिक हलचलों के पीछे कौन सी ताकतें हैं।
