प्रयागराज : सुनवाई में ढिलाई करने पर अदालत पर पक्षपात का आरोप लगाना स्वीकार्य नहीं
प्रयागराज : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने न्यायपालिका के प्रति तेजी से आक्रामक हो रहे वादियों के संबंध में कहा कि वर्तमान समय में वादी आक्रामक हो गए हैं, क्योंकि किसी न किसी कारण से न्यायालय अपनी आपराधिक अवमानना की शक्ति का उपयोग करने से बच रहे हैं। अदालतें नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का सम्मान करने के लिए ऐसी कार्यवाही से बचती हैं, लेकिन इस तरह के उदार दृष्टिकोण का यह अर्थ नहीं है कि बिना किसी आधार के किसी भी तरह के निंदनीय आरोप न्यायालय पर लगाए जा सकते हैं और बच निकला जा सकता है।
उक्त टिप्पणी न्यायमूर्ति जे जे मुनीर की एकल पीठ ने जय सिंह की याचिका पर विचार करते हुए की, जिसमें राजस्व बोर्ड द्वारा उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 के तहत दाखिल एक आवेदन को अपर आयुक्त न्यायिक-तृतीय, बरेली से किसी अन्य न्यायालय में स्थानांतरित करने से इनकार करने को चुनौती दी गई थी। मामले को स्थानांतरित करने का अनुरोध इस आधार पर किया गया था कि संबंधित पीठासीन अधिकारी पक्षपातपूर्ण ढंग से काम कर रहे थे। वह मामले में लंबी तारीखें दे रहे थे, जिससे दूसरे पक्ष को मदद मिल रही थी। इसके अलावा याची ने पीठासीन अधिकारी और विपक्षी के बीच मिलीभगत होने का आरोप भी लगाया, जिसे कोर्ट ने निंदनीय माना है। कोर्ट ने पाया कि याची ने आरोपी के समर्थन में कोई भी ऐसा साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया है, जिससे निष्कर्ष निकाला जा सके कि संबंधित पीठासीन अधिकारी पक्षों के प्रति पक्षपाती थे।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि गलत आदेश या गलत प्रक्रिया पक्षपातपूर्ण नहीं कही जा सकती। इसी प्रकार पुनरीक्षण सुनवाई में पीठासीन अधिकारी की ओर से मात्र देरी करना पक्षपातपूर्ण नहीं माना जा सकता है। देरी या ढिलाई अपने आप में किसी पक्ष के खिलाफ पक्षपात को नहीं दर्शाती। इसके अलावा मिलीभगत जैसे आरोप लगाने वाले की सर्वोच्च जिम्मेदारी बनती है कि वह ऐसे आरोपों के समर्थन में साक्ष्यों को प्रस्तुत करे। अंत में कोर्ट ने पीठासीन अधिकारी के खिलाफ बेबुनियाद आरोप लगाने वाले की याचिका 5 हजार रुपए के जुर्माने के साथ खारिज कर दी।
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