पौराणिक कथा: कर्म, पाप और मोक्ष का सार

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Published By Anjali Singh
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महाराजा नृग बड़े ही दानवीर थे वह रोज एक हजार गाय ब्राम्हण को दान करते थे। एक बार उन्होंने एक ब्राह्मण को एक हजार गाय दान में दी। कुछ समय बाद ब्राह्मण की इन गाय में से एक गाय किसी तरह राजा नृग की गौशाला में फिर से आ गई। इस सत्य का पता ब्राह्मण को चला उसने गिनती की तो पाया की उसकी एक गाय कम है। दानवीर राजा ने पुन: अपनी गौशाला से एक हजार गाय एक अन्य ब्राह्मण को दान में दीं। इन गायों में से ब्राह्मण की भागी हुई गाय भी थी। उस पहले ब्राह्मण ने अपनी गाय पहचान ली और दूसरे ब्राह्मण को चोर कहा। दूसरे ब्राह्मण ने कहा, ऐसा नहीं है यह गायें हमें महाराज ने दान में दी हैं। 

दोनों ब्राह्मणों का विवाद राजा के दरबार में पहुंचा, जांच करने पर पता चला कि पहले ब्राह्मण की गाय किसी तरह बिछुड़कर महाराज की गायों में आ मिली थी, महाराज ने भूलवश उसका फिर से दानकर दिया। स्थिति से अवगत होने पर राजा ने कहा कि ब्राम्हण उस गाय के बदले एक लाख गाय लेले, परंतु ब्राह्मण अपनी गाय ही लेने के लिए अडिग थे। ऐसी स्थिति होने पर महाराज नृग ने दूसरे ब्राह्मण से कहा कि वह पहले ब्राह्मण को उसकी गाय वापस कर दे उसके बदले में जितनी गाय चाहे लेले, परंतु ब्राह्मण उस गाय के अतिरिक्त दूसरी गाय लेने के लिए तैयार न हुआ। ईश्वरी विधान के अनुसार महाराज नृग ने गोलोक वास किया।

यमराज और उनके सहयोगी चित्रगुप्त ने जब महाराज की पुण्य गणना की तो महाराज के अगणित पुण्य के साथ यह एक पाप भी था, उन्होंने कहा कि महाराज आप पहले अपने पुण्य भोगना चाहेंगे अथवा एक पाप कर्म भोगना चाहेंगे। इस पर राजा ने कहा कि वह पहले पाप कर्म भोगेंगे। परिणाम स्वरूप उन्हें गिरगिट की योनी में जन्म लेना पड़ा। अपने भोग स्वरूप महाराज एक सुखे कुएं में गिरगिट बनकर पड़े रहे। महाराज के इस कर्म संस्कार के द्वारा मिले पुर्वजन्म की आयु एवं भोग समाप्ति की अवधि आई तो भगवान श्री कृष्ण ने उनका उद्धार किया।

भगवान ने राजा नृग से कहां कोई वरदान मांग लें। तब राजा ने कहा हे प्रभु यदि आप मुझमें पर प्रसन्न हैं तो यह बताएं की व्यक्ति अशुभ कर्मों के प्रभाव से कैसे बच सकता है? भगवान श्रीकृष्ण बोले हे राजन इसका एकमात्र उपाय यही है कि वह प्रत्येक कर्म केवल भगवान के लिए करे और परमेश्वर के अलावा किसी अन्य से भावनात्मक संबंध न जोड़ संपूर्ण अनाशक्ति और समर्पित भगवद्भक्ति ही जन्म आयु और भोग से बचने का उपाय है।  -पं. सोमदत्त अग्निहोत्री

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