High Court: ट्रायल कोर्ट द्वारा हिंदी और अंग्रेजी को मिलाकर आदेश लिखना स्वीकार्य नहीं
प्रयागराज न्यूज, अमृत विचार : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक मामले पर सुनवाई के दौरान अपने 16 पृष्ठ के आदेश में ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्णय लिखने के तरीके पर आपत्ति जताते हुए स्पष्ट किया कि उत्तर प्रदेश में ट्रायल कोर्ट अपने निर्णय या तो हिंदी में या अंग्रेजी में लिख सकते हैं, लेकिन दोनों भाषाओं को मिलाकर फैसला लिखना स्वीकार्य नहीं है। कोर्ट ने आगरा के एक सत्र न्यायालय के 54 पृष्ठों के उस निर्णय को “अनुचित आचरण का उत्कृष्ट उदाहरण” बताया, जिसमें अंग्रेजी और हिंदी का मिश्रित उपयोग किया गया था। कुल 199 पैराग्राफ में से 63 पैराग्राफ अंग्रेजी में, 125 हिंदी में तथा 11 पैराग्राफ दोनों भाषाओं में लिखे गए थे।
इसके अलावा कई स्थानों पर आधा वाक्य हिंदी व आधा अंग्रेजी में लिखा गया था। कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट द्वारा प्रयुक्त ऐसी शैली पर गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा कि जब कोई निर्णय आंशिक रूप से अंग्रेजी में और आंशिक रूप से हिंदी में लिखा जाता है, तो हिंदी भाषी राज्य में हिंदी में निर्णय लिखने का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा, क्योंकि केवल हिंदी भाषा जानने वाला एक साधारण व्यक्ति अंग्रेजी में लिखे गए निर्णय में ट्रायल जज द्वारा दिए गए कारणों और तर्क को समझने में सक्षम नहीं होगा। उक्त टिप्पणी न्यायमूर्ति राजीव मिश्रा और न्यायमूर्ति डॉ. अजय कुमार-द्वितीय की खंडपीठ ने वर्ष 2021 के दहेज हत्या मामले में पति के बरी आदेश को चुनौती देने वाली शिकायतकर्ता द्वारा दाखिल दाखिल आपराधिक अपील को खारिज करते हुए की।
कोर्ट ने दंड नियमावली (सामान्य नियम-7) का हवाला देते हुए कहा कि देवनागरी लिपि में हिंदी ही अधीनस्थ दंड न्यायालयों की भाषा है, अतः निर्णय हिंदी या अंग्रेजी में से किसी एक में ही लिखा जाए। इसके साथ ही कोर्ट ने एक अन्य स्थिति को भी स्पष्ट करते हुए बताया कि अगर निर्णय हिंदी में लिखा गया हो और न्यायिक अधिकारी उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट के अंग्रेजी निर्णयों के किसी आवश्यक हिस्सों/उद्धरणों को लेना चाहते हों तो उन्हें अंग्रेजी में ही शामिल कर सकते हैं। उसी प्रकार यदि निर्णय अंग्रेजी में हो और कोई महत्वपूर्ण बयान जैसे मृत्युकालिक कथन या साक्ष्य हिंदी में दर्ज है, तो उसे भी शब्दशः हिंदी में उद्धृत किया जा सकता है यानी निर्णय एक भाषा में लिखा जाए, लेकिन आवश्यक उद्धरण मूल भाषा में देना पूरी तरह स्वीकार्य है। अंत में कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के उस निर्णय की समीक्षा की, जिसमें आरोपियों को आईपीसी और दहेज निषेध अधिनियम की धारा 4 से बरी किया गया था। कोर्ट ने दोहराया कि बरी के आदेश में हस्तक्षेप तभी संभव है, जब निर्णय में स्पष्ट विकृतियां, गलत व्याख्या या महत्वपूर्ण साक्ष्यों की अनदेखी हो। रिकॉर्ड के आधार पर कोर्ट ने पाया कि मृतिका की मृत्यु विवाह के सात वर्ष के भीतर और अप्राकृतिक (एल्युमीनियम फॉस्फाइड विषाक्तता) थी, फिर भी अभियोजन इस पक्ष में आवश्यक तत्व सिद्ध नहीं कर सका।
कथित दहेज मांग से संबंधित क्रूरता/उत्पीड़न का कोई ठोस कृत्य साबित नहीं हुआ। गवाहों के बयान से यह स्पष्ट था कि मृतिका को अस्पताल ले जाने, भर्ती कराने, बिल जमा करने और अंतिम संस्कार में पति की उपस्थिति उसके ‘सद्भावपूर्ण’ व्यवहार को दर्शाती है, जो कथित आपराधिक इरादे से मेल नहीं खाता। कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि अपराध के मूल तत्व संदेह से परे साबित नहीं हुए और ट्रायल कोर्ट का निर्णय साक्ष्यों के सही मूल्यांकन पर आधारित था। इसी आधार पर अपील खारिज कर दी गई और कोर्ट ने निर्देश दिया कि संबंधित सत्र न्यायालय का निर्णय मुख्य न्यायाधीश को उचित कार्रवाई हेतु भेजा जाए और यह आदेश राज्यभर के सभी न्यायिक अधिकारियों को प्रसारित किया जाए।
