बोधकथा: पिंकी का स्वाभिमान

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Published By Anjali Singh
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पिंकी एक छोटे से कस्बे के साधारण परिवार की लड़की थी। उसके पिता सिलाई का काम करते थे और माता एक निजी स्कूल में सहायिका थीं। परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद सामान्य थी, किंतु पिंकी आत्मसम्मान की भावना से पूर्णतया समृद्ध थी। उसे अपने परिवार की ईमानदारी पर गर्व था और अपनी मेहनत की बदौलत आगे बढ़ने का विश्वास भी। पिंकी पढ़ाई में होशियार थी और उसकी आवाज़ में आत्मविश्वास झलकता था। स्कूल की प्रतियोगिताओं में वह अक्सर भाग लिया करती थी, चाहे संसाधन कम हों या सुविधाएं। कई बार उसके सहपाठी उसकी साधारण वेशभूषा का मज़ाक भी उड़ाते थे। वे कहते, “देखो, पिंकी फिर वही पुरानी फ्रॉक पहनकर आ गई। इसको तो स्कूल की गतिविधियों में हिस्सा ही नहीं लेना चाहिए।” पिंकी इन बातों को मन में रखती जरूर थी, पर टूटती नहीं थी। उसे मालूम था कि मनुष्य का मूल्य चमकते कपड़ों से नहीं, बल्कि उज्ज्वल विचारों से तय होता है।

एक दिन स्कूल में वाद-विवाद प्रतियोगिता की घोषणा हुई। विषय था-“स्वाभिमान ही वास्तविक संपत्ति है।” पिंकी के मन में तो जैसे कोई दीपक जल उठा। उसने निश्चय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए, वह इस प्रतियोगिता में अवश्य भाग लेगी, लेकिन समस्याएं यहीं से शुरू हो गईं। प्रतियोगिता के दिन उसके पिता को काम पर जाना था और माता स्कूल से देर से लौटती थीं। पिंकी को स्वयं तैयारी करनी थी। उसके पास नया पहनने को कुछ नहीं था, जबकि बाकी छात्र-छात्राएं मंच पर जाने के लिए नए कपड़े सिलवा रहे थे। जब वह फ़ॉर्म भरकर कक्षा में लौटी, तो कुछ लड़कियों ने व्यंग्य से कहा, “पिंकी, मंच पर जाने के लिए नए कपड़े नहीं होंगे तो सब मज़ाक समझेंगे! छोड़ दे, तुझे क्या ज़रूरत है?”

पिंकी के भीतर उस क्षण हल्की-सी टीस उठी, लेकिन उसने दृढ़ता से उत्तर दिया, “मंच पर कपड़े नहीं, आत्मविश्वास चमकता है। मैं भाग लूंगी।” शाम को जब पिंकी घर पहुंची, तो उसने पिता को बताया कि वह प्रतियोगिता में भाग लेने वाली है। पिता ने मुस्कराते हुए कहा, “बिटिया, नए कपड़े तो इस बार नहीं दिला पाए, परंतु हमारा आशीर्वाद तेरे साथ है।” पिंकी ने सिर हिलाया और कहा, “मुझे बस इसी की आवश्यकता है, पिताजी।”

अगले दो दिन वह पूरी लगन से अपने भाषण की तैयारी करती रही। भाषण की हर पंक्ति में उसने अपने जीवन के अनुभवों को गूंथ दिया।कैसे स्वाभिमान किसी भी कठिनाई में मनुष्य का सहारा बनता है, कैसे आत्मसम्मान के बल पर मनुष्य विपरीत परिस्थितियों में भी टिककर खड़ा रहता है, यह सब कुछ उसके भाषण में झलक रहा था।

प्रतियोगिता का दिन आया। स्कूल पहुंचते ही पिंकी की अभिन्न मित्र रेखा ने अपनी महंगी पोशाक उसे देते हुए कहा, "पिंकी, आज तुम इसे पहनकर मंच पर जाओगी। मैं नहीं चाहती कि कोई तुम्हारा ज़रा भी मज़ाक बनाए।" लेकिन पिंकी के स्वाभिमान ने उसे ऐसा नहीं करने दिया। पिंकी बोली," रेखा, मैं तेरी भावनाएं समझती हूं, लेकिन अगर आज मैंने तुम्हारी बात मान ली, तो मेरे भीतर से मेरी स्वाभिमान की दौलत खत्म हो जाएगी।" पिंकी ने अपनी साफ-सुथरी मगर पुरानी फ्रॉक ही पहनी और बालों को साधारण तरीके से बांध लिया। उसके कुछ सहपाठियों ने हँसकर कहा, “इस रूप में भी कोई मंच पर जाता है?” लेकिन पिंकी बिना कोई प्रतिक्रिया दिए आगे बढ़ गई। उसके कदम भले हल्के थे, पर मन भीतर से दृढ़ था। जब मंच पर उसका नाम पुकारा गया, तो सभागार शांत हो गया। पिंकी ने माइक पकड़ा और बोलना शुरू किया, 

“स्वाभिमान वह शक्ति है, जो किसी भी व्यक्ति को झुकने नहीं देती। गरीबी हो या कठिनाई, यदि मन में आत्मसम्मान है तो मनुष्य हर बाधा पर विजय पा सकता है…” उसके शब्दों ने मानो पूरे सभागार पर जादू कर दिया हो। पिंकी के शब्दों में सच्चाई थी, अनुभव था और संघर्ष की चमक भी। उसके भाषण ने यह संदेश दे दिया था कि इंसान की असली सजावट उसके मूल्यों में होती है, न कि महंगे वस्त्रों में।भाषण समाप्त होते ही पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।वह पल पिंकी कभी नहीं भूल पाई, जबकि अनगिनत लोग सिर्फ उसकी बातों के लिए, उसके साहस के लिए और उसके स्वाभिमान के लिए ताली बजा रहे थे।

जब परिणाम घोषित हुए, तो पिंकी प्रथम स्थान पर रही। प्रिंसिपल ने ट्रॉफी देते हुए कहा, “पिंकी, आज तुमने सिद्ध कर दिया कि सफलता दिखावे की नहीं, विश्वास की मोहताज होती है।” मंच से उतरते हुए पिंकी के वही सहपाठी, जो उसके कपड़ों पर हंसते थे, आज सर नीचा किए खड़े थे। घर लौटकर पिंकी ने ट्रॉफी पिता की गोद में रख दी और कहा, “पिताजी, आज मैंने जो जीता है, वह आपसे मिली हुई सीख की वजह से। उसके पिता की आंखें भर आईं। उन्होंने पिंकी को हृदय से लगा लिया। -प्रेरणा अवस्थी

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