कैंपस : चिकित्सा क्षेत्र में महामना के विलक्षण दृष्टि की प्रासंगिकता
डॉ. श्रीधर द्विवेदी। आज महामना मदनमोहन मालवीय की 164 वीं जयंती है। आज जब चारों ओर चिकित्सा के व्यवसायिक स्वरूप को लेकर गरमा-गरम चर्चाएं हो रही हैं तब मुझे बरबस अपने गुरुकुल काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना मदनमोहन मालवीयजी का स्मरण हो जाता है, जिन्होंने विश्वविद्यालय के स्थापना काल से ही यह स्पष्ट कर दिया था कि मुझे न तो किसी प्रकार के साम्राज्य की कामना है न ही स्वर्ग प्राप्ति की आकांक्षा।
मुझे तो दुख और पीड़ित मानवता को सुखी और प्रसन्न बनाना ही अभीष्ट है : न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं न पुनर्भवम् , कामये दुख तप्तानाम् प्राणि नामार्ति नाशनम्’। अपने इस सार्वभौमिक, सार्वकालिक और सार्वदैशिक मनोकामना की पूर्ति के लिए उन्होंने विश्वविद्यालय का निर्माण किया और इस आप्त वाक्य को विश्वविद्यालय का आदर्श बनाया, जो आज भी विश्वविद्यालय के हर छात्र का प्रेरणा सूत्र बना हुआ है।
चिकित्सा विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में यह बात और सटीक व प्रासंगिक है, क्योंकि महामना ने आयुर्वेद महाविद्यालय के आरंभिक दिनों (1920) में ही उसका घोष वाक्य रखा था –‘चिकित्सतात पुण्यतमं न किंचित ‘अर्थात चिकित्सा से बढ़कर और कोई पुण्य नहीं। कहना न होगा की आयुर्वेद महाविद्यालय का पाठ्यक्रम समाप्त होने के बाद आधुनिक चिकित्सा पद्धति पर आधारित चिकित्सा विज्ञान महाविद्यालय की 1960 में स्थापना होने पर भी महामना का वही घोषवाक्य अविकल स्वरूप में एमबीबीएस छात्रों के लिए पथ प्रदर्शक संदेश बना रहा।
वर्तमान में जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में चिकित्सा विज्ञान का स्वरूप अपने विराट रूप में तीन संकायों (आधुनिक चिकित्सा विज्ञान, आयुर्वेद और दंत विज्ञान), 1500 शैय्याओं से अधिक सुसज्जित अस्पताल और शोध की अधुनातम विधाओं से परिपूर्ण प्रयोगशालाएं उपस्थित हैं तब महामना का स्थापना स्वप्न जो आज भी उस शिलालेख में अंकित है चरितार्थ होना ही चाहिए : इस स्वप्न को पूरा करने का उत्तरदायित्व हर उस छात्र, अध्यापक और कर्मचारी पर है, जो किसी न किसी भांति इस संस्थान से जुड़ा हुआ है।
महामना की यह प्रबल अभिलाषा थी कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से निकला हर विद्यार्थी भारतीय संस्कृति और दर्शन से भली-भांति सुपरिचित हो और उसे अपने जीवन में यथासंभव व्यवहृत भी करे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने प्रति रविवार को ‘गीता प्रवचन ‘ कार्यक्रम का आरंभ किया। इस कार्यक्रम में वह स्वयं या विश्वविद्यालय के अन्य विद्वान भारतीय दर्शन, श्रीमदभगवदगीता और संस्कृति पर प्रकाश डालते थे। गीता का यह उद्बोधन की कर्म करते रहो तुम्हारे योग क्षेम हितों की रक्षा मैं स्वयं करूंगा -तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।९.२२।।
महामना एक प्रबल आस्थावान आध्यात्मिक महापुरुष थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि छात्रों के अंतःकरण को पवित्र और शिक्षा को सकारात्मक बनाने के लिए विश्वविद्यालय के अंदर बाबा भगवान विश्वनाथ का मंदिर होना चाहिए। एक ऐसा देवस्थान जहां छात्र प्रतिदिन जाकर अपने चित्त को एकाग्र और ध्यानस्थ कर सके। उनके ये विचार महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आईंन्सटीन से पूरी तरह से मेल खाते हैं – ‘Religion without science is blind and science without religion is lame’।
इस वर्ष सत्र 2025 के आरंभ में चिकित्सा विज्ञान संस्थान के नवागंतुक एम बी बी एस छात्रों को शुभ्र कोट के साथ साथ ‘चरक शपथ ‘ दिलाई गई। इसके पूर्व एलोपैथी के छात्रों को एलोपैथी के जनक हिपोक्रेट महोदय की शपथ दिलाई जाती थी, किन्तु अनेक विमर्शों के बाद अंततः नेशनल मेडिकल कमीशन ने इस वर्ष संपूर्ण भारत में एमबीबीएस के छात्रों चरक शपथ लेना अनिवार्य बना दिया है। गौरव की बात यह है कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने इस संस्तुति को सबसे पहले कार्यान्वित कर दिया। आज पूज्य महामना की आत्मा को कितना आत्मतोष मिल रहा होगा की उसके उपवन में महर्षि चरक के नाम पर शपथ लेकर उसके सुवन चिकित्सा विज्ञान के सुपथ पर चलने का व्रत ले रहें हैं।
चिकित्सा विज्ञान महाविद्यालय की स्थापना के कुछ वर्ष बाद उससे संबद्ध सर सुंदरलाल अस्पताल के मुख्य भवन में शल्य चिकित्सा के जनक महाचार्य सुश्रुत के मूर्ति की स्थापना की गई। फिर महाविद्यालय से प्रकाशित होने वाले क्वार्टरली जर्नल ऑफ सर्जरी के मुख पृष्ठ पर आचार्य सुश्रुत का चित्र स्थायी रूप से चित्रांकित किया जाने लगा और पुनर्रचना सर्जरी / सर्जरी के जनक के रूप में उन्हें संपूर्ण विश्व में प्रतिष्ठित करने का अथक प्रयत्न किया गया। इन प्रयत्नों का फल यह हुआ कि आज पूरे विश्व में आचार्य सुश्रुत को पुनर्रचना सर्जरी के जनक के रूप में प्रसिद्धि मिल चुकी है।
यही नहीं प्लास्टिक सर्जरी ने प्रतिवर्ष अपने महाधिवेशनों में सुश्रुत व्याख्यान की परंपरा का समारंभ कर दिया है। वर्ष 2025 का सुश्रुत व्याख्यान का सौभाग्य चिकित्सा विज्ञान संस्थान के प्लास्टिक सर्जरी के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रोफेसर वीरेश्वर भट्टाचार्य महोदय को मिला। विषय था - Ancient Innovations Modern Relevance Celebrating the Genius Sushruta। आज महामना की आत्मा कितनी प्रसन्न और अभिभूत होगी उसका अंदाजा इस उपवन से प्रशिक्षित लोग ही लगा पाएंगें। आचार्य सुश्रुत द्वारा प्रचलित क्षार सूत्र के प्रयोग देश-विदेश में व्यवहृत हो रहा है। यह कम संतोष की बात नहीं है।
अब युग अनुसंधान और नवाचार का है। वह भी बहुविषयी
(मल्टीडिसिप्लीनरी) सहयोग के रूप में। आज जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में चिकित्सा विज्ञान संस्थान के अंतर्गत आधुनिक और आयुर्वेद के संकाय हैं, प्रौद्योगिकी संस्थान , विज्ञान संस्थान, कृषि संस्थान आदि अनेक उच्चानुशीलन केंद्र हैं, तो उन सबको मिलकर, एक समान उद्देश्य को लेकर स्वास्थ्य के विषय में नूतन विधाओं में जैसे नैनोटेक्नोलॉजी , रोबोट्स, कृत्रिम बुद्धि तथा योग का असंचारी रोगों में महत्व के क्षेत्र में कोई ठोस करणीय प्रयोग जनता के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिए। आखिर हम लोग इतने वर्षों के बाद भी अपने वानस्पतिक महाभंडार से कोई युगांतरकारी औषधि जैसे एस्पिरिन , बीटा-ब्लाकर, स्टैटिन , अरनी , एस एल जी टी -इन्हीबीटर या सिमाग्लयूटाइड जैसा पदार्थ क्यों नहीं निकाल पा रहे हैं ? महर्षि सुश्रुत का भी यही कथंन था – ‘सतताध्यनं वादः परतंत्रावलोकनम्’ । ऐसा करके ही हम महामना के स्वप्नों को , उनकी आप्त दृष्टि को साकार कर सकेंगें।
