संपादकीय : त्रिपक्षीय वार्ता ही समाधान
उत्तर–पूर्व भारत एक बार फिर ऐसे मोड़ पर खड़ा दिखाई देता है, जहां छोटी-सी चिंगारी बड़े राजनीतिक और सामाजिक विस्फोट का रूप ले सकती है। एक ओर पड़ोसी बांग्लादेश में अस्थिरता और हिंसा का माहौल है, दूसरी ओर मणिपुर अभी भी पूरी तरह सामान्य नहीं हो पाया है। ऐसे समय में कार्बी आंगलोंग में भड़की हिंसा को हल्के में लेना एक गंभीर भूल होगी। यह घटना केवल एक स्थानीय विवाद नहीं, बल्कि उत्तर–पूर्व की संवेदनशील राजनीतिक-सामाजिक संरचना की चेतावनी है।
कार्बी आंगलोंग, जो भारतीय संविधान की छठी अनुसूची के तहत एक स्वायत्त क्षेत्र है, लंबे समय से भूमि, पहचान और अधिकारों के प्रश्नों से जूझता रहा है। हालिया हिंसा का केंद्र ग्रामीण चारागाह रिज़र्व और पेशेवर चारागाह रिज़र्व की ज़मीन से कथित अवैध कब्ज़े हटाने की मांग रही है। प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि अन्य राज्यों से आए ‘बाहरी लोगों’ ने आरक्षित भूमि पर कब्ज़ा कर लिया है।
सवाल यह है कि यह कब्ज़ा अचानक नहीं हुआ; वर्षों की प्रशासनिक शिथिलता, राजनीतिक संरक्षण और निगरानी की कमी ने इसे संभव बनाया। जब ऐसे मामलों को समय रहते नहीं सुलझाया जाता, तो असंतोष अंततः हिंसा का रास्ता पकड़ता ही है। भाजपा के नेतृत्व वाली कार्बी आंगलोंग स्वायत्तशासी परिषद के मुख्य कार्यकारी सदस्य के घर को आग लगाने की घटना इस हिंसा को और गंभीर बना देती है। यह सत्ता-संरचना पर सीधा हमला है। इससे यह आशंका जन्मती है कि यह संघर्ष केवल दो सामाजिक गुटों तक सीमित नहीं है, इसके पीछे राजनीतिक हस्तक्षेप, उकसावे या साजिश की भूमिका भी है, क्योंकि भूमि और पहचान के मुद्दे अक्सर यहां राजनीतिक मोहरे बनते रहे हैं।
जब लोग 15 दिनों से शांतिपूर्ण धरने पर बैठे थे, तब संवाद के ज़रिए समाधान क्यों नहीं निकाला गया? प्रशासन की ऐसी विफलता हिंसा को न्योतती है। अवैध रूप से रह रहे लोगों को बेदखल करने की मांग सैद्धांतिक रूप से जायज़ हो सकती है। इसे संवैधानिक और न्यायिक दायरे में रहकर ही पूरा किया जा सकता है। अदालतों के हस्तक्षेप और मानवाधिकारों की अनदेखी से स्थिति और विस्फोटक हो सकती है।
कार्बी आंगलोंग का पश्चिमी हिस्सा पहले भी हिंसा का गवाह रहा है। यह तथ्य बताता है कि मूल समस्याओं- भूमि प्रबंधन, स्वायत्त संस्थाओं की क्षमता और स्थानीय-बाहरी संतुलन को ईमानदारी से नहीं सुलझाया गया। राज्य सरकार द्वारा अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती और हाई-लेवल मॉनिटरिंग तात्कालिक शांति के लिए आवश्यक है, लेकिन यह स्थायी समाधान नहीं हो सकता। पुलिस अफसरों के तबादले प्रशासनिक संदेश तो देते हैं, पर भरोसा तभी बनेगा जब निष्पक्ष जांच और जवाबदेही हो।
स्थानीय समुदाय, प्रशासन और राजनीतिक प्रतिनिधियों के बीच सरकार द्वारा प्रस्तावित त्रिपक्षीय वार्ता यदि ईमानदारी से की जाए, तो यह समाधान की दिशा में सार्थक कदम हो सकती है। इसके साथ-साथ ज़रूरत है पारदर्शी भूमि सर्वेक्षण, कानूनी प्रक्रिया के तहत पुनर्वास नीति और स्वायत्त परिषदों को वास्तविक निर्णय-सामर्थ्य देने की। उत्तर–पूर्व में शांति केवल बंदूक और बल से नहीं, बल्कि संवाद, संवैधानिक संवेदनशीलता और समयबद्ध न्याय से ही स्थापित हो सकती है।
