संपादकीय: सुधार का विस्तार हो
दिल्ली-एनसीआर की दमघोंटू हवा पर न्यायालय की सक्रियता और उसके निर्देशों का स्वागत है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रदूषण हर साल दोहराई जाने वाली समस्या बन चुकी है। इसे काबू करने के लिए तत्काल जरूरी उपायों के अलावा वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग दीर्घकालिक उपायों की रणनीति की समीक्षा कर उसे अभी से मजबूत करे, ताकि अगले वर्ष ऐसी स्थिति न आए।
सवाल यह नहीं कि अदालती आदेश के बाद दिल्ली की हवा सुधरेगी या नहीं; बड़ा प्रश्न यह है कि क्या यह सुधार टिकाऊ होगा और क्या इसका दायरा दिल्ली से आगे बढ़ेगा? क्योंकि महज दिल्ली ही देश नहीं है। देश के दर्जनों शहर- कानपुर, लखनऊ, पटना, गुरुग्राम, फरीदाबाद, गाजियाबाद की हवा दिल्ली से कम विषैली नहीं। इन शहरों के लिए अदालत कब विचार करेगी और सरकारें कब चेतेंगी?
हवा को शुद्ध करने से पहले उसकी अशुद्धि मापना अनिवार्य है। देश के लगभग 50 प्रतिशत शहरों में पीएम 2.5 का मापन ही नहीं होता। 64 प्रतिशत जिले मॉनिटरिंग नेटवर्क से बाहर हैं। महानगरों में भी 22 से 55 प्रतिशत शहरी इलाके कवरेज से बाहर हैं और मात्र 2 प्रतिशत आबादी ही किसी मॉनिटरिंग स्टेशन के दो किलोमीटर के दायरे में रहती है। जब देश का दो प्रतिशत से भी कम हिस्सा सीधे मॉनिटरिंग कवरेज में हो और 10 किलोमीटर त्रिज्या जोड़ने पर भी यह हिस्सा दस प्रतिशत तक पहुंचे तो इतने कम सैंपल से राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता का आकलन कैसे विश्वसनीय होगा? 289 शहरों के मैनुअल मॉनिटरिंग स्टेशन सप्ताह में केवल दो बार एयर सैंपल लेते हैं।
यह तकनीकी अक्षमता नीतिगत अंधेपन को जन्म देती है। मैनुअल स्टेशनों को स्वचालित, रियल-टाइम सेंसर में बदले बिना और डेटा की गुणवत्ता सुनिश्चित किए बिना न चेतावनी समय पर जा सकती है, न उपचार सटीक होगा। आज स्थिति यह है कि देश की केवल 15 प्रतिशत आबादी ही रियल-टाइम मॉनिटरिंग के 10 किलोमीटर दायरे में है। इस कवरेज को 50 प्रतिशत तक ले जाने के लिए हजारों नए स्टेशन चाहिए और इसके लिए स्पष्ट टाइमलाइन, बजट और जवाबदेही तय करनी होगी। इस अक्षमता के चलते 85 प्रतिशत शहर समय पर एयर-क्वालिटी अलर्ट जारी करने में अक्षम हैं।
इसके लिए डेटा इंटीग्रेशन, नगर-स्तरीय कंट्रोल रूम, स्कूलों-अस्पतालों के लिए प्रोटोकॉल और मोबाइल-आधारित चेतावनी प्रणालियां जरूरी हैं। उतना ही जरूरी है मॉनिटरिंग स्टेशनों का नियमित ऑडिट। क्या वे तय मानक प्रोटोकॉल पर काम कर रहे हैं, सेंसर कैलिब्रेट हैं या नहीं, यह पारदर्शी ढंग से सार्वजनिक किया जाए। प्रदूषण नियंत्रण की जिम्मेदारी महज पर्यावरण मंत्रालय पर छोड़ कर वाणिज्य, ऊर्जा, स्वास्थ्य, उद्योग, रेलवे, शिक्षा और शहरी विकास मंत्रालयों की भी स्पष्ट भूमिकाएं तय होनी चाहिए। प्रदूषण कोई स्थानीय आपदा नहीं, यह राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल है। इसे केवल न्यायालयों के भरोसे छोड़ना शासन की विफलता मानी जाएगी। अतीत गवाह है, सुप्रीम कोर्ट या उच्च न्यायालयों की फटकार से कुछ तात्कालिक कदम उठते हैं, पर जड़ में जाकर समस्या सुलझाने की राजनीतिक-प्रशासनिक इच्छाशक्ति अक्सर कमजोर पड़ जाती है।
