संपादकीय: ठोस कूटनीति की जरूरत 

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Published By Monis Khan
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बांग्लादेश में आम चुनाव से पहले जिस तरह तेज हुई हिंसा में हिंदू समुदाय, उनकी संपत्तियों व मंदिरों को निशाना बनाया जा रहा है, निरपराध हिंदू युवक को ईशनिंदा के झूटे बहाने से मारा गया, वह घोर चिंता का विषय है। ऐसे में मोहन भागवत का ‘बांग्लादेश में हिंदू एकजुट हों’ वाला बयान भावनात्मक रूप से प्रेरक भले लगे, पर जब वहां के हिंदू अल्पसंख्यक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से बेहद कमजोर हैं, तो केवल एकजुटता का आह्वान उन्हें कितना सुरक्षित कर पाएगा? बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी अब कुल जनसंख्या का सात प्रतिशत से थोड़ा ही अधिक रह गई है। लोकतंत्र संख्या का खेल है; ऐसे में सवा करोड़ से कम लोगों की आवाज़ सत्ता-संरचना तक कैसे पहुंचेगी? 

गोपालगंज, मौलवी बाजार और ठाकुरगांव जैसे कुछ जिलों में हिंदुओं की हिस्सेदारी किंचित उल्लेखनीय है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर वे बिखरे हुए हैं। इस बिखराव और अल्पसंख्यक स्थिति में ‘एकजुटता’ का अर्थ नैतिक बल से आगे नहीं बढ़ पाता, क्योंकि उनके पास न धन है, न पद, न प्रशासन और न सुरक्षा तंत्र में पर्याप्त प्रतिनिधित्व। एकजुटता के उपदेश से इतर प्रताड़ित हिंदुओं को कैसे प्रतिकार करना है, इस पर ठोस मार्गदर्शन आवश्यक है, केवल चिंता और नैतिक समर्थन से जमीनी हालात कैसे बदलेंगे? पिछले 16 महीनों में हिंदुओं को निशाना बनाने की शताधिक घटनाएं हुई हैं, पर अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की चुप्पी जारी है। क्या इस मौन को तोड़ने के लिए पर्याप्त कूटनीतिक दबाव बनाया गया? विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों के आह्वान से कुछ असर शायद ही पड़े। 

शेख हसीना की भारत में मौजूदगी को बहाना बनाकर भारत-विरोधी माहौल बनाया जा रहा है, लेकिन मूल कारण सत्ता-संघर्ष, कट्टरता और दंडहीनता की संस्कृति है। भारत के लिए यह केवल भावनात्मक या धार्मिक मुद्दा नहीं, बल्कि विदेश नीति और क्षेत्रीय स्थिरता का प्रश्न है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता द्वारा हिंदू युवक दीपू चंद्र दास की हत्या के दोषियों को न्याय के कटघरे में लाने और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की अपील ही पर्याप्त नहीं। यह भी सच है कि कट्टरपंथी इस्लामिस्ट समूह और भारत-विरोधी ताकतें इस हिंसा से लाभ उठा रही हैं। ऐसे में भारत को बांग्लादेश पर यह स्पष्ट दबाव बनाना होगा कि अल्पसंख्यकों विशेषकर हिंदुओं की जान-माल की सुरक्षा उसकी संवैधानिक जिम्मेदारी है। 

बांग्लादेश में हिंदू आबादी का निरंतर सिकुड़ना भारत और वैश्विक समुदाय दोनों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। द्विपक्षीय वार्ताओं, व्यापारिक और कनेक्टिविटी समझौतों में मानवाधिकार की शर्तों को जोड़ना होगा। तात्कालिक तौर पर भारत को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मुद्दा उठाना, संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार संस्थाओं को सक्रिय करना और पीड़ितों के लिए तत्काल राहत व कानूनी सहायता सुनिश्चित करनी चाहिए। दीर्घकालिक उपायों के तहत हमें अल्पसंख्यक सुरक्षा को बांग्लादेश के साथ रिश्तों की अनिवार्य शर्त बनाना होगा। बांग्लादेशी हिंदुओं की सुरक्षा बयानों और आधे-अधूरे उपायों से नहीं, बल्कि संगठित अंतर्राष्ट्रीय दबाव, सुसंगत कूटनीति और ठोस कार्रवाई से ही सुनिश्चित हो सकती है और यही समय की मांग है।