24 वर्षों बाद रिहा हुआ न्यायिक ढिलाई का शिकार अभियुक्त, हाईकोर्ट से मिला न्याय
प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने डकैती के एक मामले में 24 वर्षों से जेल में बंद आरोपी को बरी करते हुए स्पष्ट किया कि केवल अभियुक्त द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत दिए गए 'इकबालिया बयान' के आधार पर किसी आरोपी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक अभियोजन पक्ष कोई भी सहायक या दोषी ठहराने वाला साक्ष्य प्रस्तुत ना करे।
कोर्ट ने निरपराध अभियुक्त को लगभग 24 वर्षों तक कारावास में रखे जाने के मामले को न्यायिक प्रक्रिया का दुखद पहलू बताते हुए कहा कि अपीलकर्ता लगभग 24 वर्षों से जेल में बंद है, एक ऐसे मामले में जिसमें उसके खिलाफ कोई सबूत नहीं था। अतः वर्ष 2002 में ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई उम्रकैद और सात वर्ष के कठोर कारावास की सजा को रद्द करते हुए न्यायमूर्ति संजीव कुमार और न्यायमूर्ति जे.जे. मुनीर की खंडपीठ ने आजाद खान की अपील को स्वीकार कर लिया और सभी आरोपों से बरी करते हुए उसे तत्काल रिहा करने का आदेश दिया।
कोर्ट ने निचली अदालत के न्यायाधीश को इस बात के लिए दोषी माना कि उन्होंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि अपीलकर्ता अपनी जान के डर से अपराध कबूल कर रहा था। दरअसल आरोपी ने ट्रायल के दौरान सात बार “इकबालिया आवेदन” केवल इस भय से दिए थे कि जेल से रिहा होने पर उसकी हत्या हो सकती है।
अपीलकर्ता ने अपने कबूलनामे में इस बात का डर व्यक्त किया था कि अगर उसे रिहा कर दिया गया तो मुखबिर पुलिस के साथ मिलीभगत करके उसकी हत्या कर देगा। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि अपने मामले को संदेह से परे साबित करने का भार अभियोजन पक्ष पर होता है। हालांकि इस मामले में अभियोजन पक्ष ने केवल एक गवाह यानी एक कांस्टेबल की जांच की, जो केवल एक औपचारिक गवाह था।
अपीलकर्ता के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि अभियोजन पक्ष द्वारा अपने मामले के समर्थन में कोई ठोस साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया और न ही किसी तथ्यात्मक गवाह की जांच हुई, साथ ही रिकॉर्ड से यह भी स्पष्ट हुआ कि आरोपी को अपने बचाव के लिए न तो किसी अधिवक्ता की प्रभावी सहायता दी गई और न ही कोई विधिक सहायता उपलब्ध कराई गई, जो अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन है, साथ ही सीआरपीसी की धारा 304 का भी उल्लंघन हुआ है।
अपीलकर्ता को फरवरी, 2002 में आईपीसी की धारा 395 (डकैती) और 397 (डकैती या डकैती, जिसमें मृत्यु या गंभीर चोट पहुंचाने का प्रयास शामिल है) के तहत विशेष न्यायाधीश/अपर सत्र न्यायाधीश, मैनपुरी द्वारा दोषी ठहराया गया। आरोप था कि वर्ष 2000 में अपीलकर्ता ने 10-15 बदमाशों के साथ मिलकर शिकायतकर्ता के घर में घुसकर सदस्यों पर हमला किया और नकदी एवं आभूषण लूट लिए।
घटना के दौरान बदमाशों ने कथित तौर पर गोलीबारी कर तीन लोगों को घायल कर दिया। मुकदमे की सुनवाई के दौरान अपीलकर्ता द्वारा कबूलनामा दाखिल करने के बाद उसका मामला अन्य आरोपियों से अलग कर दिया गया था। बाद में ट्रायल कोर्ट ने पाया कि अपीलकर्ता ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया था और यह माना था कि वह डकैती करने वाले गिरोह के सदस्यों में से एक था, इसलिए उसे दोषसिद्ध करते हुए आजीवन कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। अपनी दोषसिद्धि को चुनौती देते हुए अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट के समक्ष वर्तमान अपील दाखिल की।
अब उच्च न्यायालय के समक्ष मुख्य प्रश्न यह था कि क्या अन्य किसी साक्ष्य के अभाव में सीआरपीसी की धारा 313 के तहत दर्ज किए गए बयान में अपीलकर्ता द्वारा अपराध स्वीकार किए जाने के आधार पर ही उसे दोषी ठहराया जा सकता था। इस विधिक प्रश्न के उत्तर पर विचार करते हुए कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णयों का हवाला देकर स्पष्ट किया कि धारा 313 के तहत आरोपी का बयान साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत “साक्ष्य” नहीं माना जाएगा। ऐसे बयान केवल अभियोजन साक्ष्यों के साथ मिलकर ही विचार योग्य होते हैं। अतः अपीलकर्ता को 24 वर्षों बाद रिहाई मिल गई।
