अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस विशेष: सुलगते पहाड़ों के साथ सुलगते सवाल…

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पद्मसंभव सिंह, अमृत विचार। इन दिनों जंगलों में भीषण आग देखने को मिल रही है। रानीखेत में ताड़ीखेत के पावर कॉर्पोरेशन से लेकर एसएसबी परिसर तक के पास तक जगंल में शुक्रवार को आग धधक रही थी, सारा जगंल धुआंधार हो उठा था। गर्मियों के दिनों में आग लगने की यह घटना आम है, मगर …

पद्मसंभव सिंह, अमृत विचार। इन दिनों जंगलों में भीषण आग देखने को मिल रही है। रानीखेत में ताड़ीखेत के पावर कॉर्पोरेशन से लेकर एसएसबी परिसर तक के पास तक जगंल में शुक्रवार को आग धधक रही थी, सारा जगंल धुआंधार हो उठा था। गर्मियों के दिनों में आग लगने की यह घटना आम है, मगर चिंता की बात ये है कि इस विषय पर न तो स्थानीय लोग ही गंभीर हैं और न ही सरकार व संबंधित विभाग। जंगल में रहने वाले जीव-जंतु और वनस्पतियां खतरे में है, लेकिन शासन-प्रशासन इन सबके बावजूद लापरवाह बना है।

एक ओर कहा जाता है ‘जल जंगल है तो जीवन है’, बड़े-बड़े स्तर पर शासन-प्रशासन की ओर से जोर-शोर से पौधरोपण का आडंबर भी रचा जाता है। साथ ही समाज का एक बड़ा वर्ग भी पर्यावरण को बचाने का संकल्प लेता है। ऐसे में ये गंभीर विषय है कि लगातार जंगलों में लगने वाली आग को रोकने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। जंगलों में सुलगता धुआं और अग्न्नि चीख-चीख कर जिम्मेदारों की दृष्टिहीनता का ही बखान कर रही है।

वन विभाग भी निद्रा काल में चला जाता है। संबंधित कर्मचारी और अग्निशमन के बाद भी आग को बुझाने के प्रयास उतनी गंभीरता से नहीं किए जा रहे, जैसे की होने चाहिए। वन दिवस यानि की 21 मार्च को एक बार फिर से एक बार पौधरोपण का आडंबर रचा जाएगा, ‘जल जंगल है तो जीवन है’ इस वाक्य को दोहराया जाएगा। मगर वनों के विकास के लिए कोई ठोस प्रारूप नहीं बन पाएगा।

जरूरत है तो ये कि वनों की रक्षा के प्रति हमें स्वयं भी जागरूक होना पड़ेगा, साथ ही संबंधित विभाग और शासन को भी इस विषय पर ठोस रणनीतियां बनानी होंगी। क्योंकि जंगल है तो उसमें रहने वाले जीव-जंतु, उनमें फल-फूल रही वनस्पतियां जीवित रह पाएंगी और पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बना रहेगा, जिससे हमारा पर्यावरण हमारा पहाड़ हरा-भरा रहेगा।

जंगलों में आग लगने के क्या हैं कारण

उत्तराखंड के पहाड़ों में अधिकतर क्षेत्र चीड़ के जंगलों से भरे हैं, जिनकी पत्तियों को यहां की स्थानीय बोली में पिरूल कहा जाता है। जंगलों में आग के फैलने का सबसे बड़ा कारण यही हैं। वैसे तो चीड़ की लकड़ी फर्नीचर के बनाने के काम आती है, पहाड़ों में घर बनाने में भी इसका इस्तेमाल होता है। वहीं इससे निकलने वाले लीसा बहुपयोगी होता है। लीसा एक ऐसा तरल द्रव्य है जिसमें आग लगने पर आग तेजी से फैलती है। चीड़ के नुकसान की बात की जाए तो चीड़ का पेड़ ऐसा होता है जहां उग जाए वो वहां उर्वरा शक्ति खत्म कर देता है,यह शुष्क भूमि पर उगता है, इसे पनपने के लिए पानी की जरूरत नहीं होती है। बल्कि यह पानी के स्त्रोतों को भी खत्म कर देता है। जहां पिरूल पड़ जाए, वहां अन्य घास का अगना मुश्किल हो जाता है।

जंगलों में आग लगने का एक कारण ये भी है कि पहाड़ों के रास्ते और सड़कों पर कई बार राहगीर बीड़ी या सिगरेट पीते समय बिना ध्यान दिए माचिस की अधजली तिल्ली या अधजली सिगरेट बीड़ी को ऐसे ही फेंक देते हैं,  जो आग लगने का कारण बन जाती है। वहीं गर्मियों में प्राकृतिक घर्षण की वजह से भी पिरूल में थोड़ी सी भी चिंगारी फैल जाए तो वो आग ऐसे पूरे जंगल में फैल जाती है जिस पर काबू पाना मुश्किल हो जाता है।

इसके साथ ही पहाड़ में लोग खेतों की सफाई के साथ-साथ नई घास के पनपने के लिए अपनी बंजर पड़ी भूमि की सफाई करते हैं और उससे निकलने वाले कूड़े को एकत्र कर आग लगा देते हैंं, कई बार आग लगाने के समय तेज हवा चलती है जिस कारण आग फैल जाती है और इतनी फैल जाती है कि वो जंगलों का रूख कर लेती है। एक जंगल दूसरे जंगल से जुड़े रहते हैं और हवा के साथ पिरूल होने के कारण आग और भयावह होते हुए कई जंगलों में फैल जाती है।

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