'लुप्त हो रही ऊन स्वेटर की कला, रेडीमेड जैकेट की बहार' महिलाएं बोली- ठंड में स्वेटर बुनने का अलग ही मजा

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Published By Anjali Singh
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विशाल तिवारी/अयोध्या,अमृत विचार। सर्दियों का मौसम आते ही महिलाएं धूप में बैठकर सलाइयों से ऊन बुनतीं, बच्चों और परिवार के लिए रंग-बिरंगे स्वेटर तैयार करतीं। यह न केवल ठंड से बचाव का साधन था, बल्कि एक पारिवारिक परंपरा और रचनात्मकता का प्रतीक भी। आज बदलते समय के साथ यह कला धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। रेडीमेड स्वेटर और जैकेट की बाढ़ ने बाजार को पूरी तरह बदल दिया है।

पुराने समय में सर्दी की शुरुआत में साइकिल पर ऊन बेचने वाले फेरीवालों की आवाज गलियों में गूंजती थी। पुकार सुनकर महिलाएं घरों से निकलतीं और मनपसंद रंगों की ऊन खरीदतीं। बाजारों में सलाइयां (निटिंग नीडल्स) और ऊन की दुकानें सजी रहती थीं। महिलाएं बताती हैं कि ठंड के मौसम में छत या आंगन में धूप सेंकते हुए स्वेटर बुनने का मजा ही अलग था। एक-एक फंदा जोड़ते हुए डिजाइन बनाना, परिवार के लिए प्यार से कुछ रचनात्मक करना, यह सब एक भावनात्मक जुड़ाव था। 

दादी-नानी से सीखी यह कला पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही थी। अब तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है। रेडीमेड गारमेंट्स की आसानी और विविधता ने हाथ से बुनाई को पीछे छोड़ दिया है। बाजारों में सस्ते और फैशनेबल स्वेटर, जैकेट आसानी से मिल जाते हैं। ऑनलाइन शॉपिंग ने तो इसे और आसान बना दिया। अयोध्या जिले में ऊन की बिक्री में 80 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गई है।

अयोध्या के दुकानदार राधेश्याम गुप्त बताते हैं कि पहले सर्दी आते ही ऊन की बोरियां खाली हो जाती थीं, लेकिन अब बिक्री न के बराबर है। करीब 10 साल पहले हम दुकान पर सुबह नौ से 11 बजे तक ऊन की सेल लगाते थे, खूब भीड़ होती थी। अच्छी बिक्री भी होती थी लेकिन अब ऊन मिल ही नहीं रही हैं। वहीं, सलाइयां बेचने वाली दुकानें भी गायब हो रही हैं। फेरीवाले अब प्लास्टिक या अन्य सामान बेचते नजर आते हैं। 

पूर्व प्रधानाचार्य वीर बहादुर सिंह कहते हैं कि यह बदलाव आधुनिकता की देन है, लेकिन एक सांस्कृतिक विरासत का नुकसान भी है। यदि हम चाहें तो इस कला को बचाया जा सकता है, स्कूलों में सिखाकर, वर्कशॉप आयोजित करके या परिवार में इसे आगे बढ़ाकर। इसके लिए लोगों को आगे आना होगा तभी स्वेटर बुनने की पुरानी खुशी लौट पाएगी।

धूप में बैठकर बुनाई करने का मजा ही अलग

-जाना बाजार निवासी नैना ने कहा कि धूप में बैठकर बुनाई करने का मजा ही अलग था। बातें होतीं, हंसी-मजाक चलता, और शाम तक स्वेटर का एक हिस्सा तैयार हो जाता। हाथ से बुना स्वेटर ज्यादा गर्म और टिकाऊ होता था। आज की व्यस्त जीवनशैली में समय की कमी है। युवा पीढ़ी को यह कला सीखने का अवसर ही नहीं मिलता।

स्वेटर बीनते-बीनते पूरे मोहल्ले का हाल मिल जाता था

-अयोध्या निवासी मिथिलेश सिंह बोलीं कि पहले हम घर के बाहर धूप में बैठकर स्वेटर बीनते थे। इस दौरान बातों ही बातों में पूरे मोहल्ले का हाल चाल मिल जाता था। अब ऊन व सलाइयां मिलती ही नहीं। मशीन से बने रेडीमेड स्वेटर सस्ते और ट्रेंडी डिजाइन वाले जरूर होते हैं, लेकिन वह हाथ से बुनाई की मेहनत को मात नहीं दे सकते।

जब तक एक पल्ला बीन न ले मां खाना नहीं देती थीं

-अयोध्या निवासी कुसुम कहती हैं कि शादी से पहले जब तक स्वेटर का एक पल्ला बीन न लें तब तक मां खाना नहीं देती थी। विभिन्न डिजाइन वाले बुने स्वेटर, टोपी, मोजे उस समय फैशन माना जाता था। मैं तो आज भी इसे सहेज कर रखी हूं। अब तो यह अतीत की बात हो गई है। इस कला को लुप्त होने से बचाने का प्रयास करना चाहिए।

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