जंगल के बीच बसा है मां काली का मंदिर, कभी सुल्ताना डाकू का होता था इलाका

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हल्द्वानी, अमृत विचार। कुमाऊं के प्रवेश द्वार हल्द्वानी से महज 6 किमी की दूरी पर मौजूद कालीचौड़ मंदिर अपने आप में एक ऐतिहासिक जगह है। जंगलों के बीच में बडे़-बड़े वृक्षों से घिरा यह मंदिर प्राचीन काल से ऋषि-मुनियों की अराधना और तपस्या का केन्द्र रहा है।   नवरात्रों में मां के इस दरबार में …

हल्द्वानी, अमृत विचार। कुमाऊं के प्रवेश द्वार हल्द्वानी से महज 6 किमी की दूरी पर मौजूद कालीचौड़ मंदिर अपने आप में एक ऐतिहासिक जगह है। जंगलों के बीच में बडे़-बड़े वृक्षों से घिरा यह मंदिर प्राचीन काल से ऋषि-मुनियों की अराधना और तपस्या का केन्द्र रहा है।

 

कालीचौड़ मंदिर

नवरात्रों में मां के इस दरबार में शीश नवाने के लिए लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं, मां के इस अलौकिक दरबार में हाजिरी लगाने वाले हरेक भक्त की मन्नत पूर्ण होती है।

हल्द्वनी से पहाड़ की ओर चलने पर काठगोदाम के निकट कभी सुल्ताना डाकू का गढ़ रहा गौलापार स्थित सुल्तान नगरी होते हुए इस स्थान से कच्चा मार्ग जाता है, पहले यह मार्ग पैदल ही था मगर अब वाहन ऊपर मंदिर तक जाते हैं। लगभग 2 किलो मीटर वन मार्ग पर चलकर काली चौड़ मंदिर पहुचते हैं। चारों और वन से आच्छादित यह क्षेत्र काफी ठंडक और अलग ही शीतलता प्रदान करता है। जंगली जानवरों, चिड़ियों की आवाज कभी डर तो कभी मन में कौतुहल पैदा करती है। ध्यान,योग साधना के लिए उपयुक्त इस स्थान का अपना अलग ही महत्व है।

कैसे हुई मंदिर की स्थापना क्या है इसके पीछे की कहानी

मान्यता है कि 1930 के दशक में कलकत्ता, पश्चिम बंगाल के रहने वाले एक भक्त को सपने में आकर मां काली ने स्वयं इस गुमनाम स्थल के बारे में जानकारी दी थी। इस भक्त ने अपने हल्द्वानी निवासी एक मित्र रामकुमार चूड़ीवाले को मां काली द्वारा स्वप्न में आकर यह सूचना देने की जानकारी दी। जिसके बाद दोनों भक्त कुछ और श्रद्धालुओं के जत्थे के साथ गौलापार पहुंचे और जंगल में मौजूद इस जगह को ढूँढ़ निकाला। दैवीय आदेश के अनुसार यहां पर काली मूर्ति व शिव की मूर्ति के साथ अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी पायी गयीं। खुदाई करने पर यहां देवी-देवताओं की कई मूर्तियों के साथ एक ताम्रपत्र भी मिला जिसमें मां काली के माहात्म्य का उल्लेख किया गया था। उस वक़्त खुदाई में मिली मूर्तियां आज भी यहां के पौराणिक मंदिर खण्ड में संरक्षित कर रखी गयी हैं। इनमें से ज्य्यादातर मूर्तियां आंशिक तौर पर खंडित हैं।

 

 

कालीचौड़ मंदिर में मिली पुरानी मृर्तियां

इस मंदिर से संबंधित एक चमत्कारिक कहानी भी है

एक बुजुर्ग लीलाधर जोशी बताते हैं कि लगभग 3 दशक पहले किच्छा के एक सिख परिवार से ताल्लकु रखने वाले (अशोक बाबा) परिवार ने अपने मृत बच्चे को यहां लाकर मां काली के दरबार में यह कहकर समर्पित कर दिया कि मां अब इस बालक का जो चाहे आप वो करें, बताया जाता है कि ऐसा करने पर वह मृत बच्चा पुनर्जीवित हो उठा। और तभी से यह परिवार मंदिर में अगाध श्रद्धा रखता है और आज तक इस परिवार द्वारा नवरात्र व शिवरात्री पर भंडारे का आयोजन किया जाता है।

आस्था के साथ पौराणिक महत्व भी है इस मंदिर का

मान्यता है कि कालीचौड़ मंदिर ऋषि-मुनियों की तपस्थली रही है। बताया जाता है कि सतयुग में सप्त ऋषियों ने इसी स्थान पर मां काली की आराधना कर अलौकिक सिद्धियां प्राप्त की थीं। मार्कण्डेय ऋषि ने भी यहां तपस्या कर काली से वरदान प्राप्त किया। पुलस्तय ऋषि के साथ अत्रि व पुलह ऋषि ने भी इसी स्थान पर तपस्या की थी।

इस जगह से अनेक सन्तों के अध्यात्मिक जीवन की शुरुआत हुई जिनमें गुरु गोरखनाथ, महेन्द्रनाथ, सोमवारी बाबा, नान्तीन बाबा, हैड़ाखान बाबा सहित अनेक सन्तों ने अपने अध्यात्मिक जीवन की शुरुआत की।

मंदिर के पुजारी ललित मिश्रा बताते हैं कि पायलट बाबा ने अपनी पुस्तक ‘हिमालय कह रहा है’ में कालीचौड़ के माहात्म्य का उल्लेख किया है। पायलट बाबा के शिष्य आज भी अपनी साधना कालिचौड़ आकर ही शुरू किया करते हैं।

तराई-भाबर के गजेटियर के अनुसार लगभग आठवीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य भी अपने उत्तराखंड आगमन के दौरान सबसे पहले इसी स्थान पर आये थे। यहां की गयी साधना से ही उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ। यहां रहकर उन्होंने लम्बे समय तक साधना की तथा अध्यात्मिक चिंतन भी किया. इसके बाद वे यहां से जागेश्वर और गंगोलीहाट के लिए निकल गए।

कालीचौड़ मंदिर में मौजूद देवी का मंदिर

कई दन्तकथाओं व किवदन्तियों को समेटे यह मन्दिर लंबे समय तक गोपनीय रहा। लगभग सात दशक पूर्व कलकत्ता के भक्त को मां काली ने जब इस स्थल के बारे में स्वयं आलोकित किया तब यह दोबारा प्रकाश में आया। आज यहां महाकाली के साथ ही प्रहलाद, शिव, हनुमान, वेदव्यास आदि के मंदिरों का एक समूह है। 7 दशक पहले एक पेड़ के नीचे खुदाई के दौरान निकली मूर्तियों से बनाया गया यह मंदिर आज भव्य आकार ले चुका है। यहां पर लम्बी साधना करने के इच्छुक भक्तों के लिए एक धर्मशाला का भी निर्माण किया गया है। बहरहाल इस मंदिर को लेकर लोगों की आस्था देखते बनती है जिसका प्रमाण नवरात्र के मौके पर लगी श्रद्धालुओं की पंक्ति देती है।

 

 

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