अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस: भारत में बाघों की बढ़ती संख्या को लेकर एक ओर उत्साह, दूसरी तरफ चिंताएं

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Published By Vishal Singh
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नई दिल्ली। भारत में बाघों की संख्या बढ़ने के चलते उत्साह और चिंताएं दोनों बढ़ रही हैं। एक तरफ जहां बाघों की संख्या में गिरावट के बाद वृद्धि होना भारत के लिए राहत लेकर आया है, तो दूसरी ओर विकास बनाम पारिस्थितिकी को लेकर छिड़ी बहस और तेज हो गई है। साल 2022 की गणना के अनुसार भारत में बाघों की संख्या 3,167 है। दुनियाभर में जितने बाघ हैं, उनमें से 75 प्रतिशत भारत में हैं। एक समय इनके जल्द विलुप्त होने का खतरा पैदा हो गया था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। 

ऐसा 50 साल पहले 1973 में शुरू हुए ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ की वजह से संभव हो पाया है। जिस समय यह परियोजना शुरू हुई, उस वक्त बाघों की संख्या महज 268 थी। शनिवार को मनाए जाने वाले अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस से पहले विशेषज्ञों ने कहा कि हालांकि यह बदलाव वन्यजीव स्थलों में बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप, वन्यजीवों के सिकुड़ते ठिकाने, भारत के वनक्षेत्र की खराब होती गुणवत्ता और नीतियों में परिवर्तन के बीच आया है। 

वन्यजीव संरक्षणवादी प्रेरणा बिंद्रा ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, “हमारे जनसंख्या घनत्व और अन्य दबावों के बावजूद, बाघों के संरक्षण की यह उपलब्धि आसान नहीं है और प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत के बाद से यह एक क्रमिक प्रक्रिया रही है। हमें इस बात का गर्व हो सकता है कि भारत में बाघों की संख्या बढ़ रही है, जबकि कुछ देशों में ये विलुप्त हो चुके हैं। इस सफलता का श्रेय हमारे लोगों की सहनशीलता, राजनीतिक इच्छाशक्ति और एक मजबूत कानूनी व नीतिगत ढांचे को दिया जा सकता है।” 

हालांकि उन्होंने वन संरक्षण अधिनियम, 1980 में हाल ही में प्रस्तावित संशोधनों, संरक्षित क्षेत्रों में हानिकारक विकास परियोजनाओं, बाघों के रहने के स्थानों पर खनन, और पन्ना बाघ अभयारण्य में केन बेतवा नदी लिंक जैसी परियोजनाओं का हवाला देते हुए कहा कि कानूनी ढांचे को "कमजोर" किया जा रहा है। 

भारतीय वन्यजीव संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक क़मर क़ुरैशी ने एक विपरीत दृष्टिकोण दिया और कहा कि सुधारात्मक उपाय किए जा रहे हैं। कुरैशी ने उत्तराखंड, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश सहित हालिया बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का हवाला देते हुए कहा “हमें विकास के बारे में पारिस्थितिक दृष्टि से सोचना होगा। राजमार्ग बनाते समय अब हम बाघों और अन्य जानवरों के गुजरने के लिए सुरक्षित मार्ग बनाने के बारे में सोच रहे हैं। यह भारत में कई स्थानों पर पहले से ही हो रहा है।” 

प्रसिद्ध वैज्ञानिक और भारतीय वन्यजीव संस्थान के पूर्व डीन वाई वी झाला ने कहा कि मानवीय हस्तक्षेप से शिकारी-शिकार के अनुपात में असंतुलन भी हो सकता है। बाघ जैसे शिकारी अपने शिकार की तलाश में उन क्षेत्रों से बाहर जा सकते हैं, जहां वे पैदा हुए हैं। अपने मूल क्षेत्र से बाहर जाने की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति तब प्रभावित होती है जब वन्यजीवों के ठिकानों के आसपास राजमार्ग, रेलवे, खदानें, बाड़ वाले रिसॉर्ट और बगीचे बनाए जाते हैं। झाला ने कहा, “मानव-बाघ संघर्ष आम तौर पर तब होता है जब बाघ का शिकार ख़त्म हो जाता है और बाघों के रहने के लिए कोई जगह नहीं होती (गलियारे खत्म हो जाते हैं)। इसके अलावा, संघर्ष तब होता है जब मनुष्य उन जंगलों में जाते हैं जहां बाघों का घनत्व अधिक है।'' 

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