पीलीभीत: सत्ताएं बदलीं, जनप्रतिनिधियों के चेहरे भी...नहीं बदली तो मझोला मिल की बदहाली
राजनीतिक मुद्दा बनकर रह गई डेढ़ दशक से बंद उत्तराखंड सीमा पर स्थित चीनी मिल
पीलीभीत, अमृत विचार। उत्तराखंड की सीमा से सटे कस्बा मझोला की बंद पड़ी चीनी मिल अभी भी बदहाल है। डेढ़ दशक से अधिक समय से बंद मिल को चलाने के लिए शायद ही ऐसा कोई जनप्रतिनिधि बाकी हो, जिसने शासन स्तर पर बड़े-नेताओं संग फोटो खिंचाने के बाद इस मुद्दे को रखने का दावा नहीं किया।
राजनीतिक रैलियों को संबोधित करने आए स्टार प्रचारकों ने भी आश्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मगर, हकीकत ये भी है कि ये सब दावे बेमानी से साबित हो रहे हैं। अभी तक एक भी कदम मिल को संचालित करने की दिशा में नहीं उठाया जा सका है। आलम ये है कि बंद पड़ी मिल का चक्का तो नहीं घूमा, लेकिन तराई की राजनीति जरूर मझोला चीनी मिल के मुद्दे के इर्द-गिर्द घूमती रही है। इतना जरूर कि मझोला मिल जल्द चलेगी... ये सुनकर आस टूट चुकी है। गृहस्थी चलाने के लिए पलायन का सिलसिला जारी है। हालांकि आंदोलनों से जुड़े रहे यूनियन नेताओं का मानना है कि अगर डबल इंजन की सरकार चाहे तो मिल चलने में कोई दिक्कत नहीं आएगी। बशर्तें शासन स्तर पर हकीकत पहुंचाई जा सके और जनप्रतिनिधि इसे गंभीरता से लें।
उत्तराखंड सीमा पर स्थित कस्का मझोला में सहकारिता क्षेत्र की मझोला चीनी मिल की शुरुआत 19 नवंबर 1965 को तत्कालीन मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी ने कराई। ऑल इंडिया को-ऑपरेटिव फेडरेशन के वाइस प्रेसिडेंट रोशन लाल शुक्ला ने इस मिल का लाइसेंस दिया था। लंबे समय से तक ये चीनी मिल सबसे बेहतर होने की गिनती में शुमार रही। सीमावर्ती इलाका होने की वजह से उत्तराखंड के बड़ी संख्या में किसान गन्ना लेकर पहुंचते थे। इसका सीधा असर मझोला के व्यापार पर भी था। साल 2009-10 में तत्कालीन बसपा सरकार में चीनी मिल बंद हो गई। डेढ दशक से अधिक समय से अब सिर्फ ये बंद पड़ी चीनी मिल राजनीतिक मुद्दा बनकर रह गई है। अक्सर चुनावों में होने वाली रैलियों और शासन स्तर पर किसी बड़े नेता से मुलाकात के बाद जारी किए गए जनप्रतिनिधियों के प्रेस नोट में ये मुद्दा अभी भी शामिल है।
इस मिल को चलाने के लिए कई आंदोलन भी हुए, मगर नतीजा न निकलने पर श्रमिकों के परिवारों का पलायन तेजी से होता रहा और गिने-चुने लोग ही बचे हैं। सत्ताएं बदलती गईं और जनप्रतिनिधि के चेहरे भी, लेकिन नहीं बदली तो मझोला चीनी मिल की बदहाली। ये एक मुद्दा तो बनी हुई है, लेकिन इसकी शुरुआत कराने के लिए दिलचस्पी कोई नहीं ले रहा, जबकि जनपद से ही सत्ता के बड़े चेहरे इस मिल क्षेत्र से सीधे जुड़े हैं। श्रमिक नेताओं का कहना है कि सपा सरकार में कैबिनेट में ये पास भी हो गया था, लेकिन मिल चलने के लिए कार्रवाई की शुरुआत से पहले ही सत्ता बदल गई। मौजूदा हालात में तो ये और भी आसान है। डबल इंजन की सरकार है। केंद्रीय राज्यमंत्री एवं पीलीभीत सांसद जितिन प्रसाद के लिए ये कोई बड़ा काम भी नहीं। बस उन्हें इसकी वास्तविक स्थिति से अवगत कराया जाए।
व्यापार और विकास पर भी डाला असर
बताते हैं कि जब मझोला चीनी मिल चला करती थी तो इसका एक बड़ा लाभ क्षेत्र के व्यापार पर भी रहता था। मिल में काम करने वाले अफसर-कर्मचारी, गन्ना लेकर पहुंचने वाले किसान कस्बे की बाजार से ही खरीदारी किया करते थे। मिल बंद पड़ने के बाद पलायन में तेजी आई तो व्यापार पर भी असर पड़ा। व्यापारियों का मानना है कि अभी भी अगर मिल चालू हो जाए तो क्षेत्र का व्यापार और विकास दोनों ही उठछालन मारेंगे। रोजगार के क्षेत्र में भी तस्वीर बदलेगी। इस मिल के चलने से किसान, व्यापारी खुशहाल होगा और क्षेत्र के विकास में भी तेजी आएगी।
सब कुछ होने के बाद भी मिल न चलना दुर्भाग्यपूर्ण: सत्यप्रकाश
चीनी मजदूर संघ मझोला के अध्यक्ष सत्य प्रकाश शुक्ला का कहना है कि जिले के राजनेता चाहते ही नहीं कि चीनी मिल चले। मिल क्षेत्र में डेढ़ हजार से अधिक गन्ना किसान है। इसमे से 80 प्रतिशत परेशान हैं। बीस प्रतिशत गन्ना व भू-माफिया किस्म के लोग मिल ना चलने से खुश हैं। मझोला चीनी मिल पर कोई कर्ज नहीं, कोई बड़ी देनदारी नहीं। शराब मिल भी यहां पहले से है। मगर, हकीकत प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री तक नहीं पहुंचाई जा रही है। फैक्ट्री की संपत्ति तक नहीं रखा पा रहे हैं। जमीनों पर अतिक्रमण हो रहा है। करोड़ों के तो सिर्फ पेड़ ही खड़े होंगे। सब कुछ होने के बाद भी मिल न चल पाना दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है।
जिला गन्ना अधिकारी खुशीराम भार्गव ने बताया कि मझोला चीनी मिल बंद है। इसलिए इसे चालू कराने के लिए जो भी निर्णय होगा, वह शासन स्तर से चलेगा। एक-डेढ़ साल से फिलहाल इसके संबंध में कोई पत्र आदि प्राप्त नहीं हुआ है। इससे पूर्व में जरूरत कुछ लिखापढ़ी तत्कालीन डीएम के स्तर से हुई थी।
