जॉब का पहला दिन: सारा मोटिवेशनल ज्ञान हुआ फुस्स
अपनी नौकरी के पहले दिन को याद करना ठीक अपनी पहली प्रेमिका को याद करने जैसा है। जब मुझे नौकरी मिली तो उस समय मुझे ऐसा लगा कि मेरी नौकरी मिलने में मेरे हथेली की किसी प्रबल भाग्य रेखा का प्रबल योगदान रहा हो। दरअसल मेरे स्नातक करते ही मुझे नौकरी मिल गई थी और उस समय मेरी उम्र बमुश्किल चौबीस वर्ष थी। मेरे शरीर का भूगोल भी मेरी उम्रानुसार था। यहां उम्रानुसार से मेरा तात्पर्य यह है कि मेरा शरीर आज के सिक्स पैक की तरह या एट पैक की तरह नहीं था, लेकिन ऐसा भी दुबला-पतला नहीं था कि कोई देखते ही मुझे दधीचि कह दे।
खैर! मैंने नौकरी पर जाने से पहले उस समय के सबसे चर्चित मोटिवेशन की किताब लिखने वाले कुछ एक बड़े और चर्चित लेखकों की ‘नौकरी पर पहले दिन कैसे जाए’ की तीन-चार किताबें बुक स्टॉल से लाकर खूब पढ़ी और इसके गहन अध्ययन के बाद जब मैं नौकरी के पहले दिन समय ऑफिस के गेट पर पहुंचा, तो मेरे सारे किताबी ज्ञान का टॉवर ऐसे ध्वस्त हुआ कि जैसे किसी शहर की अवैध बिल्डिंग को सरकारी आदेश पर बुलडोजर लगाकर ध्वस्त कर दिया गया हो। दरअसल उस किताब के किसी भी पैराग्राफ में यह कही भी नहीं लिखा हुआ था कि जब आप पहले दिन नौकरी पर जाएं तो आपको ऑफिस गेट पर बैठा हुआ गेटमैन जब नीचे से लेकर ऊपर तक आपको ऐसे देखे कि जैसे वह आपका एक्सरे निकाल रहा हो तब ऐसे में आप क्या करें?
खैर! उसके इस तरह के व्यवहार करने के पीछे उसकी अपनी कोई विभागीय गलती नहीं थी। मैं देखने से ही उस समय मिस मैच सा एक नौजवान लग रहा था। यानी उम्र और मेरे शरीर का उस समय पहने हुए शूट से मेल नहीं खा रहा था, जबकि इस शूट को खरीदने और सिलवाने के लिए मैंने शहर के सारे शूट स्पेशलिस्ट के यहां ऐसे यात्रा की कि जैसे कोई आधुनिक विदेशी यात्री ह्वेनसांग भारत में नौकरी पर पहले दिन शूट पहनकर जाने का वर्णन अपनी किसी शूट यात्रा की किताब में करने के लिए के लिए वह भारत की यात्रा पर आया हो। थोड़ी देर बाद मैंने अपनी झिझक छिपाते हुए गेटमैन से कहा कि मैं बैंक की इस शाखा का नया पीओ हूं, तो वह ससम्मान अपनी जगह से उठा और मुझे अपनी निर्धारित सीट पर बिठा आया।
अभी मुझे अपनी कुर्सी पर बैठे कुछ ही देर हुआ था कि एक-एक कर सारे कर्मचारी आकर अपनी-अपनी निर्धारित सीट पर बैठ गए, लेकिन एक बात जो मैंने उन सभी की आंखों में नोट की वह बात उन सभी का हूबहू गेटमैन की तरह ही मुझे अपनी तरफ देखना था। उनके इस तरह से देखने की वजह से मेरी हथेली मेरे लाख प्रयास करने के बावजूद भी थोड़ी बहुत पसीने के सीलन से भीग चुकी थी, जबकि उस समय ऑफिस का एसी चल रहा था। अभी मैं इस हादसे से दो-चार था ही कि तभी मेरी मेज के पास आकर चपरासी ने जैसे ही कहा कि सर! आपको मैनेजर साहब ने अपनी केबिन में बुलाया है। यह सुनते ही मेरे चेहरे की दिवाल घड़ी जो अभी तक ठीक-ठाक चल रही थी, वह ऐसे हो गई जैसे बारह बजने वाले कांटे पर आकर बिगड़ गई हो। अब चुकी मैनेजर साहब ने बुलाया था, तो जाना ही था। सो कुर्सी से उठने से पहले मैंने अपने कंपनग्रस्त पैरों के अघोषित कंपन के प्रभाव को कम करने के लिए मैंने अपने जीवन की पहली बांधी हुई टाई को तीन-चार बार दाएं-बाएं, ऊपर-नीचे ऐसे खींचा की जैसे इसके खींचने से मेरे आत्मविश्वास का गिरा हुआ प्लेटलेट साढ़े तीन लाख पार कर जाएगा। फिर मैं मैनेजर के केबिन की तरफ ऐसे चल पड़ा कि जैसे सोलह वर्ष के सचिन तेंदुलकर को मैंने पहली बार बैटिंग करने के लिए क्रिकेट मैदान में उतरते हुए टीवी पर देखा था।
मै आई कम इन सर? यस! कम इन। टेक योर सीट। मैं उनके इतना कहते ही कुर्सी पर ऐसे बैठ गया कि जैसे मैं किसी रिमोट से कुर्सी पर उठने और बैठने के लिए ही बना हुआ हूं या बनाया गया हूं। थोड़ी देर बाद उन्होंने मेरी तरफ देखा और चपरासी को बुलाकर उन्होंने मिठाई और नमकीन का ऑर्डर देने के साथ ही उन्होंने चपरासी से कहा कि इसे लेने जाने से पहले सभी को मेरी केविन में भेज दो। जब सभी लोग केबिन में आ गए, तो उन्होंने मेरा सभी से परिचय इतनी आत्मीयता और सहजता से कराया कि जैसे मैं उन सभी का कोई अपना ही हूं। इस बीच मैंने यह भी महसूस किया कि मैनेजर साहब बात में से बात निकालने और बनाने के पूरे सिद्ध पुरूष हो, क्योंकि उनकी हर तीसरी और चौथी बात पर सारा स्टॉप ऐसे हंस रहा था कि उतना तो शायद इस समय टीवी पर आ रहे कपिल शर्मा के लाफ्टर शो को देखने के बाद भी लोग नहीं हंसते होंगे।
फिर मुझे थोड़ी देर बाद लगा कि जैसे उन्होंने जान बूझकर अपने हंसने और हंसाने की मात्रा थोड़ी सी कम कर दी हो ताकि उस केबिन में उनके हंसने और हंसाने की वजह से कोई हंसियोचित दुर्घटना न घटित हो जाए। इस बीच मैं कब सहज हो गया इसका मुझे कुछ पता ही नहीं चला। तभी उन्होंने मुझसे मुखातिब होते हुए कहा कि बरखुरदार! (उनका बरखुरदार कहने का अंदाज भी बिल्कुल हिंदी सिनेमा के अजीत की तरह था) उन्होंने मुझे कलम पकड़ाते हुए कहा कि “आप अपनी नौकरी के पहले दिन का यह बेशकीमती तोहफा मेरी तरफ से कुबूल करें और यह हमेशा याद रखें, जब हम नौकरी के समय अपनी कुर्सी पर बैठकर इस कलम को खोलते हैं तब हम सभी उम्र नहीं उस नौकरी और उस कुर्सी की जिम्मेदारी होते है। नौकरी में हर दिन हम नया सीखते हैं।” मैं उनकी बातों से समझ गया कि उनकी अनुभवी आंखें यह भांप गई हैं कि मैं अपनी नौकरी के पहले दिन कैसे जाए? की कोई मोटिवेशन की किताब पढ़कर आया हूं। उनकी वह कलम और मेरे नौकरी पर पहले दिन जाने की वह शूट मेरे जीवन की आज भी एक अनमोल धरोहर है। लेखक- रंगनाथ द्विवेदी, जौनपुर
