परमसत्ता से जुड़ने की प्रक्रिया है अध्यात्म
अध्यात्म पथ स्वयं को समग्र रूप से जानने की, उस परमसत्ता से जुड़ने की तथा आत्मपरिष्कार एवं आत्मविस्तार की प्रक्रिया है। कितने ही लोग इस पथ पर चल पड़ते हैं। बड़े उत्साह के साथ शुरुआत करते हैं। फिर रास्ते में ही कुछ हिम्मत हार बैठते हैं। कुछ सांसारिक राग-रंग को ही सब कुछ मान बैठते हैं। कुछ संकीर्ण स्वार्थ-अहंकार के धंधे में उलझकर, जीवन के आदर्श से समझौता कर बैठते हैं। कुछ आलस्य-प्रमाद में भ्रमित होकर बहुमूल्य जीवन को यों ही बर्बाद कर देते हैं। इसमें प्रायः इस समझ का अभाव मुख्य कारक रहता है कि अध्यात्म चेतना के परिष्कार का विज्ञान है, जिसमें जन्म-जन्मांतरों से मलिन चित्त एवं भ्रमित मन के साथ वास्ता पड़ रहा होता है। अचेतन मन के महासागर को पार करते हुए चेतना के शिखर का आरोहण करना होता है। आगे बढ़ना होता है।-आचार्य डॉ. प्रदीप द्विवेदी
नि:संदेह मार्ग कठिन है। दुरूह है। पूर्व में कृत कर्मराशि जब पहाड़ जैसा चट्टानी अवरोध बनकर राह में खड़ी हो जाती है, तो साधक की आस्था डांवाडोल हो जाती है। सस्ती पूजा-पत्री, भोग-चढ़ावे व चिह्न पूजा के सहारे धर्म-आध्यात्म के पथ पर बहुत कुछ बटोरने के फेर में चला पथिक मार्ग में ही धराशाई हो जाता है। यहां तक कि नास्तिक हो जाता है और भगवान तथा समर्थ गुरु तक को कोसने लगता है। जबकि धर्म-अध्यात्म पथ का अपना विधान है, विज्ञान है।
इसकी थोड़ी सी भी समझ साधक को राजमार्ग से विचलित नहीं होने देती। वह पगडंडियों में नहीं उलझता। धर्म-अध्यात्म की शुरुआत धार्मिकता की प्राथमिक कक्षा से होती है, जिसमें पूजा-पाठ से लेकर कर्मकांड का सहारा लिया जाता है, लेकिन स्वाध्याय एवं आत्मचिंतन के साथ साधक की समझ भी सूक्ष्म होती जाती है। आस्तिकता के भाव के जाग्रत के साथ, श्रद्धा-निष्ठा परिपक्व होती है। इसी तैयारी के बाद अध्यात्म की कक्षा में प्रवेश मिलता है।
आश्चर्य नहीं कि अध्यात्म पथ पर चलने वाले ऋ षियों ने इसे छुरे की धार पर चलने के समान दुस्साध्य बताया है, लेकिन इस विकट पथ का वरण करने वाले मुमुक्षु पथिकों ने भी कब हार मानी है। मार्ग की दुरूहता को जानते हुए भी अंतस की पुकार के बल पर वे हर युग में इस पथ का संधान करते रहे हैं। किसी समर्थ के अवलंबन के साथ अपार धैर्य, अनंत श्रद्धा और अनवरत प्रयास के साथ अभीष्ट को सिद्ध करते रहे हैं। नि:संदेह समर्थगुरु (पूर्णगुरु) का अवलंबन कार्य को और सरल बना देता है। हमारा परम सौभाग्य है कि अवतारी गुरुसत्ता का सानिध्य हमें मिला।
हमारे गुरुवर के सिद्धसूत्रों के साथ अध्यात्म का व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक स्वरुप हमारे लिए सहज सुलभ है, लेकिन इनको जीवन में वरण करने, धारण करने के लिए साहस, निष्ठा एवं तैयारी की न्यूनतम मांग है। आखिर हर मांग अपनी कीमत मांगता है, जो चीज जितनी कीमती होती है, उसका उतना ही मूल्य भी चुकाना होता है। एक किसान, व्यापारी व विद्यार्थी तन-मन व धन की सारी पूंजी झोंक देता है। तब कहीं जाकर समस्त सुख-सुविधाओं को त्यागते हुए एकांतिक प्रयास एवं निष्ठा के बल पर अभीष्ट मंजिल तक पहुंचता है।
इसी प्रकार आध्यात्म पथ भी अपनी कीमत मांगता है, जिसमें चित्त-चेतना की शुद्धि एवं परिष्कार मुख्य है। स्वयं को गलाकर-मिटाकर सब कुछ पाने की कला अध्यात्म है। इसमें सबसे पहले चित्त का परिष्कार करना होता है। इसी के साथ जन्मों से अज्ञान के परदे में ढका आत्मज्ञान का सूर्य प्रकाशित होता है और अपने ईश्वरीय अस्तित्व का बोध कराता है। वैसे तो समर्थगुरु (पूर्णगुरु) एवं परमात्मा की कृपा तो सदा ही उनकी सभी संतानों पर अनवरत रुपों में बरसती रहती है।
इसको ग्रहण करने व धारण करने की क्षमता का अभाव ही मुख्य कारण है कि अधिकांशतया जीवन इनसे रीता रह जाता है। जिस मात्रा में साधक-शिष्य इसको धारण कर पाता है, उसी अनुपात में उसका आत्मिक विकास होता है। अध्यात्म विज्ञान का कार्य अंततः जीवन का कायाकल्प है। मनुष्य में देवत्व का उदय है। यह उसकी अंतर्निहित दिव्य संभावनाओं व क्षमताओं का जागरण एवं विकास है।
आत्मकल्याण के साथ लोक-कल्याण
चित्त के प्रक्षालन के साथ इसका परिष्कार प्रारंभ होता है, जो स्वयं में समयसाध्य एवं कष्टसाध्य प्रक्रिया है। अपार धैर्य, अटूट श्रद्धा एवं निरंतर प्रयास के साथ यह कार्य संपन्न होता है। बारंबार असफलता के बाद भी साधक हिम्मत नहीं हारता और बार-बार प्रयास करता है। हजार असफलताओं के बाद हजार बार प्रयास करने का जीवट और हर हार के बाद पुनः उठकर आगे बढ़ने का अदम्य साहस अध्यात्म पथ को परिभाषित करता है। अध्यात्म पथ पर अभीष्ट को उपलब्ध सभी साधकों के जीवन दृष्टांत इसी सत्य की गवाही देते हैं।
परमपूज्य गुरुदेव ने इसके निमित्त आत्मनिरीक्षण, आत्मसमीक्षा, आत्मसुधार व आत्मनिर्माण की प्रक्रिया का प्रतिपादन किया है। दैनिक जीवन में आत्मबोध से लेकर तत्वबोध की व्यावहारिक साधना को बताया है, जिसमें संयम, स्वाध्याय और सेवा के साथ उपासना, साधना, आराधना की त्रिवेणी में अवगाहन करना पड़ता हैं। परमपूज्य गुरुदेव का यह मार्गदर्शन साधक को अपनी स्थिति के अनुरूप सीखने को प्रेरित करता है और देर-सवेर आध्यात्म पथ पर चलते हुए आत्मकल्याण के साथ लोक-कल्याण के महान उद्वेश्य को पूर्ण करता है।
गुरुदेव व दैवी कृपा साथ रहते हुए भी साधक को एकाकी ही इस पथ को पार करना होता है। अपनी अंतरात्मा की पुकार पर आध्यात्म पथ पर आरूढ़ साधक इस मार्ग का सहर्ष वरण भी करता है। इसके लिए पथ के काटों की चिंता नहीं करनी। लोग क्या कहते हैं और क्या करते हैं, इसकी चिंता कौन करे? गुरुकृपा से अपनी आत्मा ही मार्गदर्शन के लिए पर्याप्त है। लोग अंधरे में भटकते हैं। भटकते रहें। हम अपने विवेक के प्रकाश का अवलंबन कर स्वतः ही आगे बढेंगे। कौन विरोध करता है, कौन समर्थन इसकी गणना क्या करनी हमें? अपनी अंतरात्मा, अपना साहस अपने साथ है और हम वही करेंगे, जो करना अपने जैसे सजग साधकों के लिए उचित और उपयुक्त है।
