सोमनाथ की अविस्मरणीय यात्रा

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Published By Anjali Singh
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जब से मैंने आचार्य चतुरसेन शास्त्री की चर्चित ऐतिहासिक पुस्तक सोमनाथ को पढ़ा, मेरे मन में ये आस जाग उठी कि आततायी महमूद गजनवी द्वारा लूटे और विध्वंस किए गए मंदिर में विराजे प्रभु सोमनाथ जी के दर्शन को समय मिला तो जरूर जाऊंगा। बाबा-दादा से सुना था कि सबसे पहले सोमनाथ मंदिर का निर्माण सोने से चंद्रदेव (सोमराज) ने बाद में पुनर्निर्माण रावण ने चांदी से, भगवान कृष्ण ने लकड़ी से और राजा भीमदेव ने पत्थरों से करवाया था। इतना सब सुनने के उपरांत मानव मन में उस पवित्र स्थल के दर्शन करने की भावना बलवती होना सहज स्वाभाविक है। मुझे श्री सोमनाथ जी के दर्शन का सौभाग्य बदा था माध्यम मेरे मुंहबोले बड़े भाई साहब रामेश्वर प्रसाद और उनकी धर्म में गहरी निष्ठा रखने वाली पत्नी मेरी प्रियंवदा भाभी बनीं। शाम के समय हम लोग पहले से बुक किए हुए श्री सोमनाथ ट्रस्ट द्वारा संचालित विश्राम स्थल पर पहुंचे। कम पैसे में वहां की उत्कृष्ट व्यवस्था और साफ सफाई देखकर हम लोग दंग रह गए। -दया शंकर मिश्र ,कानपुर
 
हम सभी के मन में श्री सोमजी के दर्शन की इतनी उत्कंठा थी कि जल्दी ही नहा धोकर वहां से लगभग एक कि.मी. दूर स्थित मंदिर पहुंच गए। बाहर से ही मंदिर की विशालता और शिखरों की नक्काशी देखकर मन-मयूर नर्तन करने लगा। मंदिर की सुरक्षा में तैनात सिक्योरिटी के नियमों का पालन करते हुए हम लोग पंक्तिबद्ध होकर मंदिर के अंदर पहुंचे तो आरती का समय हो रहा था। इसके उपरांत पट बंद हो जाते हैं, जो दूसरे दिन प्रातः खुलते हैं।
 
दोबारा दर्शन करने का बाद हुई संतुष्टि
 
मंदिर में पुरुषों और महिलाओं के दर्शन हेतु जाने एवं निकलने के लिए पृथक-पृथक लाइन थी। महिलाएं समुद्र की ओर स्थित द्वार से जबकि पुरुष देवी अहिल्याबाई द्वारा निर्मित करवाए गए मंदिर की तरफ स्थित द्वार से दर्शन के उपरांत बाहर जा रहे थे। आशा के विपरीत प्रभु सोमनाथ जी असीम कृपा से हम लोगों को बहुत ही आराम से श्री सोमजी के विशाल ज्योतिर्लिंग के दर्शन हुए। एक बार दर्शन से मन नहीं भरा और बाहर निकलकर मैं पुनः लाइन में लग गया। दोबारा जी भरकर उनकी प्रतिमा को देखा, तो मन में संतुष्टि हुई। आरती अभी चल रही थी, भक्त कतारबद्ध हर-हर महादेव निनाद करते हुए दर्शन कर रहे थे। 
 
जब भाभीजी बिछड़ गई
हम सब लोग बाहर निकलकर पहले से तय स्थान पर एक दूसरे से मिले। वहां पर मैं, भाई साहब और मेरी पत्नी तो आ गईं, लेकिन भाभीजी का कहीं अता-पता नहीं था। दिन भर के सफर से हम लोग काफी थक चुके थे, लेकिन बड़े भाई की पत्नी की तलाश आवश्यक थी। मैं और भाई साहब उनको ढूंढते हुए हनुमान जी की तरह मंदिर के एक दो चक्कर लगा आए, परंतु वे नहीं मिलीं। सभी बड़े पशोपेश में थे कि वे आखिर हैं कहां। हम लोग एक तरफ बैठ गए और भाई साहब से कहा कि आप दूसरी तरफ बैठिए। बाहर निकलने के दो ही रास्ते हैं। मिलेंगी जरूर। 
 
इतने में मंदिर के पिछवाड़े की तरफ से एक सज्जन कंधे में झोला डाले हुए आए। मैं पहले और श्रीमती जी मेरे बाद बैठी थीं। उनको देखते ही न जाने कैसे मेरे हाथ ऊपर उठ गए और उन्होंने मुझे कपड़े के छोटे थैले में एक लडडू पकड़ा दिया। श्रीमती जी ने भी हाथ बढ़ाया, लेकिन वे किसी को भी प्रसाद दिए बिना आगे बढ़ गए। मैं अवाक था, केवल मुझे ही प्रसाद मिला। जब तक स्थिर होता, कुछ विचार करता वे आगे जाने कहां निकल गए मैं उनको ठीक से देख भी नहीं पाया। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मुझ अकिंचन को प्रभु सोमनाथ ही तो प्रसाद देने नहीं चले आए थे। 
   
इसके उपरांत मैंने एक चक्कर मंदिर के और लगाने का निश्चय किया। समुद्र की तरफ स्थित द्वार के पास पहुंचते ही देखा कि भाभीजी मंदिर की दीवारों में उत्कीर्ण देव प्रतिमाओं की श्रद्धापूर्वक चरण वंदना, पूजा-अर्चना कर रही थीं। वे इस कदर भक्ति में लीन थीं कि उनको होश ही नहीं थी कि वे किसी के साथ आई हैं, कोई उनका इंतजार कर रहा है। 
 
उनको देखकर मैं वैसे ही हर्षातिरेक से भर गया जैसे हनुमान जी मां सीता को अशोक वाटिका में पाकर खुश हुए थे। मैंने उनकी पूजा में बाधा उत्पन्न करते हुए ईश्वर आराधना में लीन उनके मन को वापस धरातल पर लाने हेतु आवाज दी और सूचित किया कि मंदिर बंद होने वाला है, हम लोगों को वापस चलकर भोजनादि करना है।
 
दूसरे दिन प्रातः हम लोगों ने पुनः दिव्य दर्शन किए और आसपास के दर्शनीय स्थलों का भ्रमण कर दोपहर में वापसी के लिए समीप ही वेरावल स्थित रेलवे स्टेशन से वंदेभारत पकड़ ली। जल्दबाजी में की गई यह यात्रा कई मायनों में अविस्मरणीय बन गई। रास्ते भर पुनः दर्शनार्थ आने को सोचता हुआ मैं श्रीसोमजी के ख्यालों में खो गया।