आदिशक्ति का धाम काशी का दुर्गा कुंड मंदिर

Amrit Vichar Network
Published By Anjali Singh
On

आदिकाल में काशी में केवल तीन ही मंदिर थे, पहला काशी विश्वनाथ, दूसरा मां अन्नपूर्णा और तीसरा दुर्गा मंदिर। इसी में दुर्गा मंदिर वाराणसी मां दुर्गा की स्तुति के लिए महत्वपूर्ण स्थान है। मान्यता है कि असुर शुंभ और निशुंभ का वध करने के बाद मां दुर्गा ने यहां विश्राम किया था। कहा जाता है कि माता यहां पर आदि शक्ति स्वरूप में विराजमान करती हैं और यह मंदिर आदिकाल से है। कुछ लोग यहां तंत्र पूजा भी करते हैं। यहां पर स्थित हवन कुंड में हर रोज हवन किया जाता है। स्वामी विवेकानंद जी जब भी वाराणसी आते थें, तो इस मंदिर में अवश्य आते थे। -आचार्य  टेकनारायण उपाध्याय वरिष्ठ अर्चक श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर, वाराणसी

मंदिर का इतिहास

वाराणसी के इस दुर्गा मंदिर का इतिहास युगों पुराना है। मंदिर का निर्माण काशी नरेश राजा सुबाहू के द्वारा कराया गया। मंदिर और इस स्थित कुंड के निर्माण के पीछे का कारण एक युद्ध था। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सहस्त्राब्दियों के पहले राजा सुबाहू ने अपनी पुत्री के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया, लेकिन राजकुमारी ने स्वयंवर के पहले स्वप्न में अपना विवाह अयोध्या के राजकुमार सुदर्शन से होता हुआ देखा। राजकुमारी ने यह बात अपने पिता से बताई तो उन्होंने इसकी चर्चा स्वयंवर में आ चुके राजाओं से की। राजाओं ने इसे अपना अपमान समझा और सुदर्शन के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। 

प्रयागराज में भारद्वाज ऋ षि के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करने वाले राजकुमार सुदर्शन ने राजाओं की चुनौती स्वीकार कर मां दुर्गा से विजय का आशीर्वाद मांगा। युद्ध भूमि में जब सुदर्शन युद्ध के लिए पहुंचा, तो खुद आदि शक्ति ने वहां पहुंचकर विरोधियों का वध कर डाला। इस भीषणतम युद्ध के कारण रक्त से एक कुंड निर्मित हो गया। यही कुंड दुर्गा कुंड कहलाया। मां दुर्गा ने खुद राजकुमारी का विवाह, सुदर्शन के साथ करने का आदेश दिया। इसके बाद राजा सुबाहू ने इस स्थान पर मां दुर्गा के दिव्य मंदिर का निर्माण कराया। कहा जाता है कि शुंभ और निशुंभ का वध करने के बाद भी मां दुर्गा ने इसी स्थान पर विश्राम किया था।

पौराणिक मान्यताएं

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जहां भी मां दुर्गा प्रकट होती हैं, वहां पर उनके प्रतीकों की उपासना की जाती है। यह स्थान भी उनमें से एक है। यहां मां दुर्गा के मुखौटे और चरण पादुका की प्राण-प्रतिष्ठा की गई है। वाराणसी का यह दुर्गा कुंड मंदिर बीसा यंत्र पर आधारित है। बीसा यंत्र का मतलब है 20 कोण वाली एक तांत्रिक संरचना, जिस पर इस दुर्गा मंदिर की नींव रखी गई है। इस मंदिर को तंत्र साधन के लिए भी जाना जाता है। नवरात्रि में चौथे दिन माता कुष्मांडा की पूजा की जाती है और इस दिन मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना का आयोजन किया जाता है।

मंदिर की संरचना 

वाराणसी के इस दुर्गा कुंड मंदिर का निर्माण प्रसिद्ध नागर शैली में हुआ है। लाल पत्थर से बने इस मंदिर की बनावट इतनी सुंदर है कि यहां दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालु मंदिर देखकर ही मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। वैसे तो इस मंदिर का इतिहास युगों पुराना है, लेकिन वर्तमान दृश्य मंदिर की स्थापना सन् 1760 में बंगाल की रानी भवानी द्वारा की गई। उस समय मंदिर के निर्माण में 50000 रुपये से अधिक की लागत आई थी। मंदिर का वर्णन काशी खंड में भी मिलता है। मंदिर में मां दुर्गा के अलावा बाबा भैरोनाथ, महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली की मूर्तियां भी स्थापित हैं। मंदिर में मां दुर्गा के अनन्य भक्त एवं मंदिर के पुजारी को भी समर्पित स्थान प्राप्त है। मान्यताओं के अनुसार प्राचीन समय में मंदिर के पुजारी को मां दुर्गा का वरदान प्राप्त हुआ, तब से ही मंदिर में मां दुर्गा के साथ उस पुजारी के दर्शन भी किए जाते हैं। मंदिर परिसर में ही एक हवन कुंड भी है, जहां प्रतिदिन मां दुर्गा के लिए हवन किया जाता है।

बीसा यंत्र पर स्थित है मंदिर 

पौराणिक मान्यता के अनुसार, जहां माता स्वयं प्रकट होती हैं, वहां मूर्ति स्थापित नहीं की जाती। ऐसे मंदिरों में केवल चिह्न की पूजा की जाती है। दुर्गा मंदिर भी उन्हीं श्रेणियों में आता है। यहां माता के मुखौटे और चरण पादुका की पूजा की जाती है। काशी का दुर्गा मंदिर बीसा यंत्र पर आधारित है। बीसा यंत्र का मतलब बीस कोण की यांत्रिक संरचना, जिसके ऊपर मंदिर की आधारशीला रखी गई है।