सम्मेलन से निराश

Amrit Vichar Network
Published By Amrit Vichar
On

ग्लासगो में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय जलवायु शिखर सम्मेलन ‘सीओपी-26’ में हुए विचार-विमर्श पर भारत ने निराशा व्यक्त की है। भारत का कहना है कि जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक कार्रवाई पर्याप्त वित्तीय मदद उपलब्ध कराने पर निर्भर है। वास्तव में विकसित देशों को अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए और विकासशील देशों को वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने चाहिए। …

ग्लासगो में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय जलवायु शिखर सम्मेलन ‘सीओपी-26’ में हुए विचार-विमर्श पर भारत ने निराशा व्यक्त की है। भारत का कहना है कि जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक कार्रवाई पर्याप्त वित्तीय मदद उपलब्ध कराने पर निर्भर है। वास्तव में विकसित देशों को अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए और विकासशील देशों को वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने चाहिए। विकसित देशों ने 2009 में जलवायु संबंधी कार्रवाई के लिए विकासशील देशों को 2020 तक प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर मुहैया कराने का वादा किया था।

यह वादा अभी तक पूरा नहीं किया गया है। सम्मेलन में भारत ने उस घोषणा-पत्र से भी दूरी बनाए रखी, जिसमें सौ से ज्यादा देशों ने वनों को बचाने का संकल्प लिया। भारत ने इस घोषणा-पत्र के मसौदे में आधारभूत संरचनात्मक विकास संबंधी गतिविधियों को वन-संरक्षण से जोड़े जाने से नाखुश होने के चलते यह फैसला लिया। भारतीय प्रतिनिधि ने बताया कि व्यापार और जलवायु परिवर्तन के बीच प्रस्तावित मसौदा भारत को इसलिए स्वीकार्य नहीं था, क्योंकि यह मामला विश्व व्यापार संगठन के अंतर्गत आता है।

सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ने कहा जलवायु परिवर्तन को लेकर उचित निर्णय हों और विकसित देश, विकासशील देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन के लिए उपयुक्त कदम उठाने को लेकर समुचित वित्तीय और तकनीकी मदद मुहैया कराएं। प्रधानमंत्री मोदी ने 2070 तक विशुद्ध शून्य उत्सर्जन लक्ष्य हासिल करने की बात कही है लेकिन इससे दुनिया में जीवों को उत्पन्न खतरे को कम करने में मदद नहीं मिलने वाली। जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

पृथ्वी की जैव विविधता को नुकसान पहुंचाते हुए जलवायु परिवर्तन से नहीं निपट सकते। इस सफ़र को तय करने के लिए भारत को कोयले पर अपनी निर्भरता पर फिर से विचार करने और आने वाले समय में नए सिरे से कार्बन उत्सर्जन कम करने की रणनीति बनानी होगी। जानना होगा कि भारत जैसे निम्न मध्यम आमदनी वाले देश क्यों फ़ौरी तौर पर उत्सर्जन कम करने में अपना योगदान नहीं दे पा रहे हैं। यहां ये बात समझनी होगी कि आमदनी में असमानता की समस्या पूरी दुनिया में है।

‘दोहरी अर्थव्यवस्था’ का फायदा लेता आया, पूरी दुनिया और ख़ास तौर से विकासशील देशों का शक्तिशाली समृद्ध वर्ग, अमीर देशों के रहन-सहन का लुत्फ़ उठाता रहा है और अब ये वर्ग अपनी ज़िम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ सकता है। इसलिए जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए विकासशील देशों की वित्तीय ताकत को बढ़ाने पर ज़ोर देना होगा।