उत्तराखंड: मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री सबने पीठ थपथपाई, काष्ठ शिल्पी राधेश्याम के काम न आई
संजय पाठक, हल्द्वानी। 12 साल पहले दिल्ली से ठीकठाक तनख्वाह वाली प्राइवेट नौकरी छोड़कर अपने गांव पहाड़ आया था। सोचा था कि पहाड़ में रहकर अपने बुजुर्गों की सीख और हुनर को आगे बढ़ाऊंगा। इसके लिए दिन रात कोशिश भी की। काष्ठकला से एक से बढ़कर एक मॉडल भी बनाए। लेकिन बाजार न मिलने से …
संजय पाठक, हल्द्वानी। 12 साल पहले दिल्ली से ठीकठाक तनख्वाह वाली प्राइवेट नौकरी छोड़कर अपने गांव पहाड़ आया था। सोचा था कि पहाड़ में रहकर अपने बुजुर्गों की सीख और हुनर को आगे बढ़ाऊंगा। इसके लिए दिन रात कोशिश भी की। काष्ठकला से एक से बढ़कर एक मॉडल भी बनाए। लेकिन बाजार न मिलने से आज तीन हजार से ज्यादा सजावटी उत्पाद अंधेरे में कैद हैं।

इस बीच मुख्यमंत्री से लेकर मंत्रियों तक सबको काष्ठकला के उत्पाद भेंट कर चुका हूं लेकिन कभी कोई मदद नहीं मिली। यह कहना है अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट तहसील के दूरस्थ गांव सुरे निवासी काष्ठ शिल्पी राधेश्याम का। बेतरतीब और बेडौल लकड़ी से आकर्षक साजोसामान बनाने वाले शिल्पकार राधेश्याम की यह पीड़ा पहाड़ से पलायन रोकने और रिवर्स माइग्रेशन को प्रोत्साहित करने की तमाम सरकारी योजनाओं के मुंह में किसी तमाचे से कम नही है।

बस पीठ थपथपा कर चल दिए नेता
राधेश्याम बताते हैं कि पिछले 12 सालों में वह काष्ठशिल्प के आकर्षक उत्पादों को मुख्यमंत्री से लेकर तमाम मंत्रियों को भेंट कर चुके हैं। जिनमें पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत, द्वाराहाट के तत्कालीन विधायक महेश नेगी, कैबिनेट मंत्री रेखा आर्य, परिवहन मंत्री चंदनराम दास समेत दर्जनों छोटे-बड़े नेता शामिल हैं। लेकिन नेताओं ने पीठ थपथपाने के अलावा कुछ भी नहीं किया।
राधेश्याम कहते हैं कि प्रशंसा से कलाकार का पेट नहीं भरता, आजीविका चलाने के लिए उत्पादों को बाजार मिलना भी जरुरी है। अब तक कोई भी सरकारी योजना उनके काम नहीं आई। जिस कारण कई बार मन में निराशा का भाव भी आ जाता है।

नई पीढ़ी को हुनरमंद बनाने में झौंकी ताकत
काष्ठ शिल्पी राधेश्याम भले ही सरकारी उपेक्षा का शिकार हों लेकिन उन्होंने इस विधा को नई पीढ़ी तक ले जाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। परिवार में 12 साल की बेटी और भतीजे- भतीजी के अलावा गांव के 10 से अधिक बच्चों को रोजाना काष्ठ कला की बारिकियां सिखाते हैं। उन्हें उम्मीद है कि नई पीढ़ी काष्ठकला सिखेगी तो पहाड़ की कला को बढ़ावा मिलेगा। राधेश्याम दावा करते हैं कि वर्तमान समय में अल्मोड़ा जिले में वह एकमात्र काष्ठ शिल्पी हैं।
दोस्त कहते हैं दिल्ली आजा, उत्तराखंड में कुछ नहीं होगा
शिल्पकार राधेश्याम को अब उनके दोस्त भी कहने लगे हैं कि उत्तराखंड में रहकर कुछ नहीं हो सकता। तू खामखां इन लकड़ियों में दिन रात मेहनत कर समय बर्बाद कर रहा है। वापस दिल्ली आजा, प्राइवेट नौकरी ही ठीक है। सरकारी उपेक्षा से हताश हो चुके राधेश्याम को कई बार दोस्तों की कही ये बातें सच भी लगती हैं।
वह कहते हैं कि पलायन की पीड़ा को समझ कर ही वह पहाड़ लौटे थे। सोचा था पहाड़ में रहकर ही लोककला को जीवित रखकर रोजगार पैदा करेंगे। उम्मीद है कि देर से ही सही कभी न कभी उनकी मेहनत जरुर रंग लाएगी। हल्द्वानी कठघरिया निवासी काष्ठ शिल्पी जीवन चंद्र जोशी का भी उन्हें साथ मिला है।

पुरानी चौखट से बनाई 50 किलो वजनी गणेश की मूर्ति
राधेश्याम बताते हैं कि पहाड़ में अब अधिकतर लोग पुराने मकानों की जगह सीमेंट की छत वाले मकान बनाने लगे हैं। ऐसे में घरों की पुरानी चौखटें भी बाहर हो गई हैं। उन पुरानी चौखटों को खरीदकर वह काष्ठ शिल्प का रंग भर रहे हैं। अब तक वह 50 किलो वजन वाली भगवान गणेश की मूर्ति, केदारनाथ मंदिर समेत सैकड़ों सजावटी उत्पाद बना चुके हैं। इसके लिए वह तिमूर, किलमोड़ा, तुन, महल, पहियां समेत अन्य लकड़ियों का भी इस्तेमाल करते हैं।
