जहाँ अभिषेक-अम्बुद छा रहे थे, मयूरों-से सभी मुद पा रहे थे...मैथिलीशरण गुप्त लिखी चुनिंदा कविता

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Published By Vikas Babu
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मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त 1886 को झाँसी के निकट चिरगाँव में हुआ था। रोचक क़िस्सा है कि उनके बचपन का नाम ‘मिथिलाधिप नंदनशरण’ था लेकिन विद्यालय के रजिस्टर में इतना बड़ा नाम अट नहीं रहा था तो इसे ‘मैथिलीशरण’ कर दिया गया। धनाढ्य वैश्य घराने में जन्म लेने के कारण नाम में ‘गुप्त’ शामिल हो गया। वह बचपन में ‘स्वर्णलता’ नाम से छप्पय लिखते थे, फिर किशोरावस्था में ‘रसिकेश’, ‘रसिकेंदु’ आदि नाम भी प्रयोग करने लगे।

उन्होंने अनुवाद का कार्य ‘मधुप’ नाम से किया और ‘भारतीय’ और ‘नित्यानंद’ नाम से अँग्रेज़ सरकार के विरुद्ध कविताएँ लिखी। साहित्य जगत उन्हें ‘दद्दा’ पुकारता था। उनकी कृति ‘भारत-भारती’ (1912) स्वतंत्रता संग्राम के समय व्यापक प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और इसी कारण महात्मा गाँधी ने उन्हें 'राष्ट्रकवि' की पदवी दी थी। उनके द्वारा  वैसे तो कई कविताएं लिखी गई हैं, हम आपके लिए उनकी चुनिंदा कविताओं में से एक कविता लेकर आए हैं।

जहाँ अभिषेक-अम्बुद छा रहे थे,
मयूरों-से सभी मुद पा रहे थे,
वहाँ परिणाम में पत्थर पड़े यों,
खड़े ही रह गये सब थे खड़े ज्यों।
करें कब क्या, इसे बस राम जानें,
वही अपने अलौकिक काम जानें।
कहाँ है कल्पने! तू देख आकर,
स्वयं ही सत्य हो यह गीत गाकर।
बिदा होकर प्रिया से वीर लक्ष्मण--
हुए नत राम के आगे उसी क्षण।
हृदय से राम ने उनको लगाया,
कहा--"प्रत्यक्ष यह साम्राज्य पाया।"
हुआ सौमित्रि को संकोच सुन के
नयन नीचे हुए तत्काल उनके।
न वे कुछ कह सके प्रतिवाद-भय से,
समझते भाग्य थे अपना हृदय से।
कहा आनन्दपूर्वक राम ने तब--
"चलो, पितृ-वन्दना करने चलें अब।"
हुए सौमित्रि पीछे, राम आगे--
चले तो भूमि के भी भाग्य जागे।
अयोध्या के अजिर को व्योम जानों
उदित उसमें हुए सुरवैद्य मानों।
कमल-दल-से बिछाते भूमितल में,
गये दोनों विमाता के महल में।
पिता ने उस समय ही चेत पाकर,
कहा--"हा राम, हा सुत, हा गुणाकर!"
सुना करुणा-भरा निज नाम ज्यों ही,
चकित होकर बढ़े झट राम त्यों ही।

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