Japan के फुकुशिमा परमाणु संयंत्र के अपशिष्ट रेडियोधर्मी जल को प्रशांत महासागर में छोड़े जाने पर विवाद

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Published By Priya
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मेलबर्न/होनोलूलू। जापान की योजना वर्ष 2011 के भूकंप और सुनामी की वजह से तबाह हुए फुकुशिमा परमाणु संयंत्र के अपशिष्ट रेडियोधर्मी जल को शोधित कर प्रशांत महासागर में छोड़ने की है, जिसको लेकर वैज्ञानिक बिरादरी और पर्यावरण कार्यकर्ताओं के बीच बहस छिड़ गई है। योजना के तहत अगले कुछ महीनों में 10 लाख टन से अधिक शोधित रेडियोधर्मी जल को जापान को फुकुशिमा परमाणु रिएक्टर से प्रशांत महासागर में छोड़ा जाना है। जापान के मुख्य कैबिनेट सचिव हिरोकाजु मत्सुनो ने जनवरी 2023 में कहा था, ‘‘हम उम्मीद करते हैं कि इस पानी को वसंत या गर्मी के मौसम में छोड़ा जाएगा।’’ 

फुकुशिमा परमाणु संयंत्र वर्ष 2011 में आए भूकंप और उससे उठी सुनामी में तबाह हो गया था। यह वर्ष 1986 के चेर्नोबिल परमाणु हादसे के बाद सबसे बड़ा परमाणु हादसा था। संयंत्र के तीन क्षतिग्रस्त परमाणु रिएक्टर को ठंडा रखने के लिए पास में मौजूद टैंक में 13 लाख टन अपशिष्ट जल है, जिसे छोड़ा जाना है, क्योंकि वहां पर अब इस पानी को रखने के लिए स्थान नहीं बचा है। संयंत्र के संचालक तोक्यो इलेक्ट्रिक पॉवर कंपनी और जापान की सरकार द्वारा 2021 में घोषित योजना में कहा कि पानी को उन्नत तरल प्रसंस्करण प्रणाली से गुजारा जाएगा, जिससे सबसे घातक रेडियोधर्मी समस्थानिक (आइसोटोप्स) अलग हो जाएंगे और यह सुरक्षित होगा। 

अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) ने भी इस दावे का समर्थन किया और कहा कि जांच में पुष्टि हुई है कि शोधन के बाद जल वैश्विक मानकों के तहत सुरक्षित है। हालांकि, इस दावे से हर कोई संतुष्ट नहीं है। कई पर्यावणविदों का कहना है कि इस मामले में और अनुसंधान करने की जरूरत है। प्रशांत महासागर के द्वीपीय देशों के पास पिछली सदी में परमाणु हथियारों के परीक्षण की विरासत है और उनको भय है कि इसका सबसे अधिक खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ेगा। पड़ोसी देश भी इसे लेकर चिंतित हैं। इन इलाकों में मछली पकड़कर जीवनयापन करने वाले स्थानीय मछुआरों को भय है कि ग्राहक उनके द्वारा पकड़ी गई मछलियों को नहीं खरीदेंगे। प्रशांत द्वीपीय मंच की विशेषज्ञ समिति के सदस्य के तौर पर हवाई विश्वविद्यालय के बॉब रिचमंड ने फरवरी 2023 में फुकुशिमा का दौरा किया था और उनका कहना है कि संभावित उपायों को नजरअंदाज किया गया है। 

उन्होंने कहा, ‘‘ (दौरे के दौरान) यह दिखा कि समुद्री दीवार का विस्तार करने के लिए अधिक मात्रा में कंक्रीट की जरूरत होगी , प्रदूषित मृदा को स्थिर करने और क्षतिग्रस्त रिएक्टर में भूमिगत जल के जाने से रोकने के लिए बर्फ अवरोधकों को मजबूत करने की जरूरत है।’’ पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के कर्टिन विश्वविद्यालय के नाइजल मार्क ने कहा, ‘‘रिएक्टर को ठंडा करने में इस्तेमाल जल का इस्तेमाल समुद्री दीवार का विस्तार करने के लिए कंक्रीट में मिलाने में किया जा सकता है और अगर ऐसा होता है तो यह अपेक्षाकृत ज्यादा सुरक्षित होगा।’’ 

उन्होंने कहा कि असुरक्षित जल के कहीं और जाने का खतरा है। मार्क ने कहा कि रेडियोधर्मी कण बहुत बारीक होते हैं और अति गंभीर स्थिति में अगर वहां से पकड़ी जाने वाली मछलियों के खाने से होने वाला विकिरण भी नुकसानदेह हो सकता है। रिचमंड ने कहा कि उपलब्ध जानकारी से पूर्ण सुरक्षा के दावे का समर्थन नहीं करती। दुनिया के समुद्र सभी द्वारा साझा किए जाते हैं और यह हम जिस ऑक्सीजन का इस्तेमाल करते हैं उसका 50 प्रतिशत प्रदान करते हैं। उन्होंने कहा कि रेडियोधर्मी दूषित जल को प्रशांत महासागर में छोड़ने का असर सीमा पार और आने वाली पीढ़ियों तक होगा, जिसे बदला नहीं जा सकता। इसलिए इस तरह के फैसले को किसी एक देश द्वारा एकतरफा नहीं लिया जाना चाहिए। प्रशांत द्वीपीय मंच के पास प्रासंगिक प्रश्न पूछने का अधिकार है, क्योंकि यह गतिविधि उनके लोगों के जीवन और आजीविका को अभी और भविष्य में प्रभावित कर सकती है। उसने पांच स्वतंत्र विशेषज्ञों की समिति बनाई है जो इस संबंध में अहम जानकारी देगी। 

कोई भी जपान और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के वैज्ञानिकों की ईमानदारी पर सवाल नहीं उठा रहा है, लेकिन यह मानना कि हमारे समुद्र की बिना नकारात्मक प्रभाव के प्रदूषकों को ग्रहण करने की असीमित क्षमता है, गलत है। यह उम्मीद है कि जापान में हाल की बैठकों के दौरान प्रशांत द्वीप मंच की विशेषज्ञ समिति, जापानी और आईएईए वैज्ञानिकों के बीच खुली चर्चा होगी और सूचना के आदान-प्रदान को लेकर जताई गई प्रतिबद्धता से सहमति बनने के रास्ते खुलेंगे और नीति निर्माताओं का अपने महत्वपूर्ण विचार-विमर्श से मार्गदर्शन करेंगे। 

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