प्रयागराज : सीआरपीसी की धारा 313 के तहत एक बयान दर्ज करना औपचारिकता मात्र नहीं

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Published By Pradumn Upadhyay
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अमृत विचार, प्रयागराज । इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में हत्या की सजा को इस आधार पर खारिज कर दिया कि ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराने के लिए मृतक के मरने से पहले दिए गए बयान पर भरोसा तो किया था, लेकिन सीआरपीसी की धारा 313 के तहत दर्ज आरोपी के बयान में उसे स्पष्टीकरण के लिए नहीं रखा गया।

न्यायमूर्ति सिद्धार्थ वर्मा और न्यायमूर्ति मनीष कुमार निगम की खंडपीठ ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 313 के तहत एक बयान दर्ज करना ट्रायल के दरमियान की औपचारिकता भर नहीं है। सीआरपीसी की धारा 313 अभियुक्तों के हितों की रक्षा के लिए प्रक्रिया निर्धारित करती है। इस महत्वपूर्ण बिंदु पर स्पष्टीकरण की मांग के अभाव में अभियुक्तों के प्रति पूर्वाग्रह पैदा होता है। अदालत 30 नवंबर, 2016 के एक फैसले के खिलाफ अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसे अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, गोरखपुर ने सुनाया ‌था।

उन्होंने रामेश्वर लाल चौहान (अपीलार्थी-आरोपी) को आईपीसी की धारा 302 के तहत दंडनीय अपराध के लिए दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। ट्रायल कोर्ट ने मुख्य रूप से आरोपी को दोषी ठहराने के लिए मृतक के मरने से पहले दिए गए बयान पर भरोसा किया। हाईकोर्ट के समक्ष अपनी अपील में अभियुक्त के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि चूंकि तथ्य के सभी गवाहों ने अभियोजन पक्ष के बयान का समर्थन नहीं किया था, इसलिए निचली अदालत को आरोपी/अपीलकर्ता को केवल मृतक के मरने से पहले दिए बयान के आधार पर बिना किसी अन्य पुष्टिकारक साक्ष्य के दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए था।

न्यायालय ने कहा कि यह एक स्थापित कानून है कि यदि मरने से पहले दिया गया बयान पूर्ण विश्वास को प्रेरित करता है तो यह दोषसिद्धि का आधार बन सकता है। इस पृष्ठभूमि में जब अदालत ने मृत्युकालिक बयान से जुड़े सबूतों की जांच की तो अदालत ने पाया कि मरने से पहले दिए गए बयान को रिकॉर्ड करने का समय संदिग्ध था। अदालत ने आगे कहा कि यह दिखाने के लिए रिकॉर्ड में कुछ भी नहीं आया था कि डॉक्टर कैसे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मृतक अपना मृत्यु पूर्व बयान देने के लिए मानसिक रूप से ठीक है।

न्यायालय ने इस तथ्य को भी ध्यान में रखा कि एफआईआर, जो मृत्युकालिक बयान की रिकॉर्डिंग के दो दिन बाद दर्ज की गई थी, में इस तरह की घोषणा की रिकॉर्डिंग के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया था। न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि मरने से पहले दिए गए बयान को बाहर कर दिया जाता है तो अभियोजन मामले में कुछ भी नहीं रह जाता है, इसलिए अपीलकर्ता-आरोपी वैध रूप से संदेह का लाभ उठाने का हकदार है। इसी के साथ कोर्ट ने सजा के फैसले और आदेश को रद्द करते हुए आरोपी को बरी कर दिया।

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