जरा याद करो कुर्बानी..., रायबरेली के मुंशीगंज गोली कांड की याद से सिहर उठती रूह, 750 किसानों की गई थी जान
7 जनवरी 1921 को अंग्रेजी हुकूमत ने लगान का विरोध करने पर किसानों पर चलाई थी गोली
आशीष दीक्षित/रायबरेली, अमृत विचार। 7 जनवरी 1921 रायबरेली के इतिहास का ऐसा दिन था जिसकी याद आज भी शरीर में सिहरन दौड़ा देती है। जलियांबाग कांड की तरह अंग्रेजों ने निहत्थे किसानों को चारों तरफ से घेरकर ताबड़तोड़ गोलीबारी की थी। हाल यह था कि सई नदी का पानी लाल हो गया था। इस कांड ने महात्मा गांधी से लेकर जवाहर लाल नेहरू और क्रांतिकारियों को हिलाकर रख दिया था।

बताते हैं कि रायबरेली के गंगा तट पर स्थित भगवंतपुर चंदनिया गांव के किसान नेता पंडित अमोल शर्मा ने स्थानीय तालुकेदार से लगान बंदी का विरोध किया था। यह विरोध करने के कारण अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें नजरबंद कर लिया था। यह खबर जब किसानों और नौजवानों को हुई तब अंग्रेजी हुकूमत से अपने नेता को छोड़ने के लिए मांग करने लगे और आंदोलित हो उठे।
इसके परिणाम स्वरूप 7 जनवरी 1921 को बड़ी संख्या में किसानों ने रायबरेली कूच किया था लेकिन किसानों का यह जत्था मुंशीगंज सई नदी तट के पास पहुंचा ही था। उसके बाद अंग्रेजों ने भीड़ पर गोलियों से फायरिंग की थी। इस कांड की स्मृति में हर साल सई नदी तट पर किसानों को श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है। चलिए आप इस नरसंहार से पहले आपको पांच जनवरी 1921 की तारीख याद दिलाते हैं।

बताते हैं कि तत्कालीन ताल्लुकेदार के अत्याचारों से तंग आकर अमोल शर्मा और बाबा जानकीदास के नेतृत्व में कई किसान चंदनिहां में एक जनसभा कर रहे थे। दूर-दूर के गांवों के किसान आए थे। जनसभा को असफल बनाने के लिए तालुकेदार ने तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर एजी शेरिफ से मिलकर दोनों नेताओं को गिरफ्तार करवा कर लखनऊ जेल भिजवा दिया। वहां उन पर मुकदमा चला। गिरफ्तारी के अगले ही दिन रायबरेली में लोगों के बीच यह अफवाह फैली कि लखनऊ के जेल प्रशासन द्वारा दोनों नेताओं की जेल में हत्या करवा दी गई है।
इसके चलते 7 जनवरी 1921 को सुबह होते ही मुंशीगंज में सई नदी के एक छोर पर अपने नेताओं के समर्थन में एक विशाल जनसमूह एकत्रित होने लगा। हालांकि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष को पहले ही किसी बड़ी अनहोनी की भनक लग चुकी थी। उन्होंने फौरन तार भेजकर जवाहर लाल नेहरू तक खबर पहुंचवाई, लेकिन दुर्भाग्यवश या किसी और वजह से नेहरू जी रायबरेली नहीं पहुंच सके। किसानों के भारी विरोध को देखते हुए नदी किनारे प्रशासन ने भारी पुलिस बल बुला लिया था। वहीं जवाहर लाल नेहरू को नदी किनारे पहुंचने के पहले ही नजरबंद कर लिया गया। उन्हें नदी किनारे नहीं पहुंचने दिया गया।

बताते हैं कि अंग्रेज पहले ही गोलीकांड की योजना बना चुके थे। नेहरू को इस कारण नजरबंद कर लिया था कि कहीं नेहरू को गोली लग गई तो पूरे देश में माहौल गर्म हो जाएगा। अंग्रेज प्रशासन के कहने पर सभा में मौजूद निहत्थे किसानों पर अंग्रेजों ने गोलियां बरसाईं थीं। इसके बाद सई नदी की धारा किसानों के खून से रक्तरंजित हो उठी थी। बताते हैं कि इस गोलीकांड में करीब 750 किसान मारे गए थे तथा 1500 लहूलुहान हो गए थे। ये हत्याकांड जलियांवाला बाग के बाद हुआ और यह उस दौरान का सबसे बड़ा हत्याकांड था। इसकी गूंज लंदन तक उठी थी।
बताते हैं कि भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों के मन मस्तिष्क में इस हत्याकांड और जलियांवाला बाग कांड ने गहरा असर डाला था। इसी के चलते क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों को उन्हीं की भाषा में जवाब देने की रणनीति तैयार की थी। लाल, बाल और पाल के नाम से देश के तीन मशहूर, लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल और बाल गंगाधर तिलक को भी इस घटना से खासा परेशान किया था। नेहरू जब दिल्ली लौटे थे तो उनसे घटना के बारे में खासा रोष जाहिर भी किया गया था।
बाद में महात्मा गांधी भी नमक सत्याग्रह के दौरान लालगंज आए तो उन्होंने इस घटना का जिक्र कर शहीदों को याद किया था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के परिजन बताते हैं कि दमन के उस गोलीकांड में सई नदी का पानी किसानों के खून से लाल हो गया था। हत्याकांड की खबर मिलते ही जवाहर लाल नेहरू रायबरेली स्टेशन से रायबरेली कलेक्ट्रेट तक ही पहुंचे थे कि प्रशासन द्वारा उन्हें वापस जाने के सख्त निर्देश दे दिए, जिसको नजरंदाज करते हुए वह घटनास्थल की ओर चल दिए थे। किसानों के हौसले से अंग्रेज पस्त हो गए थे।
शहीद स्मारक स्थल को सहेजने की है जरूरत
अंग्रेजों के जुल्म और सितम को लेकर भारतीय किसानों के बलिदान की अमिट गाथा, जिसे मुंशीगंज गोलीकांड का नाम दिया गया। यह स्थल बदहाल हो रहा है। इस स्मारक को सुंदरीकरण की जरूरत है। किसानों की याद में सई नदी के तट पर शहीद स्मारक तो बनवाया गया, लेकिन इसके सौंदर्यीकरण पर ध्यान नहीं दिया गया। सात जनवरी को किसानों को याद करके मामले की इतिश्री कर ली जाती है। यहां पर गंदगी फैली रहती है। यहां लगाई गई वाटिका में पौधे सूख गए हैं। घोड़ा, हिरन, पक्षी व अन्य जानवरों की बनाई गई मूर्तियां टूटकर गई हैं।
आरडीए इसकी तरफ से अनदेखी किए हुए है। हर साल 7 जनवरी को रस्म अदा कर दी जाती है लेकिन स्मारक को सहेजने तथा इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की पहल नहीं होती है। वहीं जिस पुल से गोली चली थीं वह जर्जर हो चुका है। इस पर लोहे की सीट डालकर उससे आवागमन किया जा रहा है। वहीं सई नदी भी प्रदूषण के घेरे में हैं। जिस समय यह कांड हुआ था उस दौरान का गवाह बना पुल अंग्रेजों की बर्बरता की याद दिलाता है लेकिन पुल को भी सहेज नहीं रखा गया है। एक दूसरा पुल बन गया है लेकिन पुराने पुल की खंभे दरक गए हैं और यह कभी भी ढह सकते हैं।
मुंशीगंज गोली कांड के फैक्ट
कारण: किसानों ने लगान का किया था विरोध
गोलीकांड की तारीख- 7 जनवरी 1921
किसान हुए शहीद- 741
किसान हुए लहुलुहान- 1500
गोली चलाने का आदेश देने वाली अंग्रेज अफसर- डिप्टी कमिश्नर एजी शेरिफ
ज्ञात शहीदों के नाम- महावीर, बसंत, बस्तावर, जगन्नाथ, महावीर, दशरद बनिया, सूरज, राम अधीन, सरजू, कल्लू, खाटुर, बदलू, शिव नरायन, रघुनंदन, रघुवर, विंदादीन, विश्वनाथ, ओरी, बुधई, शिव बालक बेड़िया
स्मारक स्थल पर की प्राण प्रतिष्ठा- पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी।
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