कासगंज: इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की रोक, महिला आयोग ने किया समर्थन

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Published By Vikas Babu
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कासगंज, अमृत विचार। महिलाओं की गरिमा, आत्मसम्मान और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना न्याय प्रणाली का मूल कर्तव्य है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्र के एक निर्णय में बलात्कार या उसके प्रयास की परिभाषा को सीमित रूप में व्याख्या की गई थी, जिसे न केवल विधिक रूप से दोषपूर्ण माना गया, बल्कि यह महिला सुरक्षा की भावना के भी विरुद्ध है।

सर्वोच्च न्यायालय की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह शामिल हैं, ने इस निर्णय पर तत्काल रोक लगा दी। यह कदम न्यायोचित और सराहनीय माना जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यौन अपराध केवल शारीरिक आघात तक सीमित नहीं हैं, बल्कि ये महिलाओं के मानसिक, सामाजिक और आत्मिक सम्मान को भी ठेस पहुँचाते हैं। उत्तर प्रदेश राज्य महिला आयोग की सदस्य रेनू गौड़ का कहना है कि न्यायिक दृष्टिकोण में संवेदनशीलता अनिवार्य है। 

उनका मानना है कि यदि अपराधों को तकनीकी व्याख्याओं के आधार पर शिथिल किया गया, तो यह अपराधियों को संरक्षण देने जैसा होगा। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका को विधिक संरचना की शक्ति के माध्यम से महिलाओं की अस्मिता और अधिकारों की अखंडता सुनिश्चित करनी चाहिए और इन्हें सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए।

गौड़ ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को एक आवश्यक सुधारात्मक कदम बताया, जो महिला सुरक्षा और न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण दृष्टांत स्थापित करता है। महिला आयोग ने इस निर्णय का पूर्ण समर्थन किया है।

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