कनपुरिया रंगमंच तलाश रहा फिर शिखर के लिए अवसर, कभी सिनेमा से ज्यादा सुर्खियां, सीटियां और तालियां बटोरता था नाटकों का मंचन 

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Published By Anjali Singh
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आजादी के पहले फूलबाग स्थित केईएम हॉल में ब्रिटिश अफसर अंग्रेजी नाटकों का मंचन करते थे, आज वीरान पड़ा है। मर्चेंट चेंबर आडिटोरियम, लाजपत भवन या रागेन्द्र स्वरूप सेंटर फॉर परफार्मिंग आर्ट्स प्रेक्षागृह सभी जगह पहले की तरह नाटकों का मंच नहीं सजता है। लेकिन इन परिस्थितियों के बावजूद उम्मीद की किरण जगा रही है  2005 से सक्रिय संस्था अनुकृति रंगमंडल जो ‘गिरिजा के सपने’, ‘मुख्यमंत्री’, ‘बकरी’, ‘जांच पड़ताल’, ‘मोटेराम का सत्याग्रह’ जैसे 35 से ज्यादा नाटकों के 50 से अधिक शहरों में शो कर चुकी है। 

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अनुकृति से जुड़ी ‘सिग्नेचर प्ले पुरुष’, ‘एक मामूली आदमी’, ‘टेररिस्ट की प्रेमिका’, ‘कोई एक रात’ व ‘सच कहें तो’, में केन्द्रीय भूमिका निभाने वाली युवा रंगकर्मी संध्या सिंह कानपुर में थिएटर के भविष्य को लेकर आशान्वित हैं, उनका कहना है कि अनुकृति ने पिछले साल जुलाई में लखनऊ, सितंबर में शिमला के बाद इसी साल मार्च में कानपुर में नाट्य समारोह आयोजित करके दिखाया है कि दर्शकों का रुझान एक बार फिर रंगमंच की तरफ लौट रहा है।  

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कभी नाटकों के लगातार हाउसफुल शो का रिकार्ड बनाने वाला और महानायक अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘दो और दो पांच’, ‘मिस्टर नटवरलाल’, ‘याराना’ समेत दो दर्जन से अधिक फिल्मों के स्क्रिप्ट राइटर ज्ञानदेव अग्निहोत्री के शहर कानपुर का रंगमंच आज ओटीटी जैसी चुनौतियों के बीच एक बार फिर मजबूती से रंगमंच के राष्ट्रीय फलक पर अपनी पहचान बनाने में जुटा है। आजादी से पहले और बाद में तीन दशक ऐसे रहे हैं, जब कानपुर के रंगमंच के हिस्से में सिनेमा से ज्यादा सुर्खियां, सीटियां और तालियां दर्ज हैं। 

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1942 में पीपीएन कॉलेज ग्राउंड में आयोजित इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन में बलराज साहनी यहां आये थे, वरिष्ठ रंगकर्मी राधेश्याम दीक्षित के अनुसार तब उन लोगों ने कृष्ण चंदर का नाटक ‘कुत्ते की मौत’ किया था। इसके कुछ साल बाद सोहराब मोदी ने नाटक ‘झांसी की रानी’ किया। 1945 में देश की जानी मानी पृथ्वी थिएटर कंपनी बंबई से अपने सुपरहिट नाटक ‘दीवार’, ‘पठान’, ‘पैसा और शंकुतला’ लेकर कानपुर आई। आर्य नगर के बड़े मैदान  (अब गैंजेस क्लब) में हुए इन नाटकों में पृथ्वीराज कपूर का शानदार अभिनय देखकर हजारों की भीड़ मंत्रमुग्ध रह गई थी। 

आजादी के बाद का स्वर्णिम सफर 

1960 से 67 के बीच कानपुर ड्रामेटिक एसोसिएशन (काडा) ने ‘नेफा की एक शाम’, ‘चिराग जल उठा’, ‘शुतुरमुर्ग’ जैसे नाटकों के सफल मंचन किए। लेकिन 70 से 80 का दशक रंगमंच का स्वर्णिम दौर कहा जा सकता है, तब शहर में दर्पण, एंबेसडर, शिल्पी, प्रतिध्वनि, नाट्य भारती, आयाम, रंगलोक, अनुभूति, नाट्यांगन, कलाविद्, एकजुट, तक्षशिला, अलंकृत, कलानयन समेत दो दर्जन से अधिक संस्थाएं तथा प्रेम स्वरूप निगम, विजय दीक्षित, वीरेंद्र सक्सेना, कृष्णा सक्सेना, सुरेन्द्र सविता, अंबिका सिंह वर्मा, राजेंद्र सिंह, डा राजेंद्र वर्मा, रतन राठौर, दीप सक्सेना, विजय बनर्जी, पियूष विद्यासागर, राकेश डग, राकेश चतुर्वेदी, डेनिस क्लेमेट, संजीव सिकोरिया, असित डेनियल, संतोष गुप्ता, अवधेश मिश्रा, एनके नेब सरीखे रंगकर्मी रंगमंच पर नित नये नाटकों का मंचन करते थे। 

हाउसफुल शो तथा टिकटों की एडवांस बुकिंग के टूटे रिकार्ड 

80 के दशक में देश-विदेश में ख्याति बटोर चुके बब्बन खां के कॉमेडी नाटक "अदरक को पंजे" के लगातार एक हफ्ते तक हाउसफुल शो ने उस वक्त टिकटों की एडवांस बुकिंग के रिकार्ड तोड़ दिए थे। दिग्गज कलाकार जुगनू के नाटक ‘सखाराम बाइंडर’ के भी एक हफ्ते तक हाउसफुल शो लाजपत भवन में हुए थे। अनुकृति की कोषाध्यक्ष निशा वर्मा के अनुसार दस्यु सुंदरी फूलन देवी के आत्मसमर्पण के बाद साहित्यकार कामतानाथ ने नाटक लिखा फूलन। वरिष्ठ रंगकर्मी, निर्देशक विजय दीक्षित ने लाजपत भवन में इसका सफल मंचन किया। 2018 में कानपुर के लेखक पद्मश्री गिरिराज किशोर की मौजूदगी में उनके प्रसिद्ध नाटक ‘प्रजा ही रहने दो’ का मंचन देखने वाला था।

धीरे-धीरे लाइव परफॉमेंस से जुड़ रहा दर्शकों का बड़ा वर्ग 

रंगकर्मी दीपक राज राही कहते हैं कि 90 के दशक में पहले टीवी चैनल्स, फिर इंटरनेट क्रांति से छोटे शहरों के थिएटर को काफी नुकसान पहुंचा। घर बैठे मनोरंजन के तमाम विकल्पों ने दर्शको को ड्राइंगरुम में कैद कर दिया। हालांकि अब दर्शकों का बड़ा वर्ग एक बार फिर लाइव परफॉमेंस की ओर लौट रहा है।

कंटेंट दमदार तो फीके कॉस्ट्यूम, सेट और लाइट ले चल जाता काम  

थियेटर में कंटेंट ही किंग था, और रहेगा। यदि नाटक विषय-वस्तु के स्तर पर दर्शकों के साथ जुड़ जाता है तो उन्हीं का हो जाता है। फिर सेट, कॉस्ट्यूम, प्रकाश परियोजना किसी भी स्तर के हों दर्शक नाटक को हाथों हाथ ले लेते हैं। यह बताते हुए डा. ओमेन्द्र कुमार इस बात पर निराशा जताते हैं कि नाटकों में आजकल पहले की अपेक्षा कंटेट पर सबसे कम ध्यान दिया जा रहा है। उनके अनुसार यह एक सामूहिक कला है। इसलिए सभी साथियों में तालमेल और लंबे समय तक उनका साथ बने रहना भी जरूरी है। लेखक - डॉ ओमेन्द्र कुमार, रंग कर्मी 

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