पुरातत्व शिल्प सौंदर्य और जैन कला का अद्भुत संगम देवगढ़

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Published By Deepak Mishra
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अतिशय क्षेत्र देवगढ़ के कर्णाली किले में सिथत 31 जैन मंदिरों में 8वीं से 17वीं शताब्दी की करीब दो हजार मूर्तियां

ललितपुर जिला मुख्यालय से 33 किलोमीटर की दूरी पर बेतवा के तट पर विन्ध्याचल की दक्षिण-पश्चिम पर्वत श्रृंखला पर देवगढ   ऐतिहासिक स्थान है। इसका प्राचीन नाम लुअच्छागिरि है। 1974 तक यह नगर झांसी जिले में आता था।  झांसी यहां से लगभग 123 किलोमीटर दूर है। इस जगह का उल्लेख गुप्त, गुर्जर, प्रतिहार, गोंड, मुस्लिम शासकों और अंग्रेजों के समय में भी मिलता है। 8वीं से 17वीं शताब्दी तक यह स्थान जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था। पहले प्रतिहारों बाद में चंदेलों ने यहां शासन किया। 

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भगवान विष्णु को समर्पित गुप्त काल का दशावतार मंदिर

बेतवा नदी के किनारे बसा छोटा सा शहर देवगढ़ दशावतार मंदिर और जैन मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। दशावतार मंदिर भगवान विष्णु और उनके दस आध्यात्मिक रूपों को समर्पित है। यह मंदिर गुप्त काल का है और उत्तर भारत में अपनी तरह का पहला मंदिर है। दशावतार मंदिर से हमने जैन मंदिर पहुंचने के लिए ऑटो से करीब 1.5 किलोमीटर की यात्रा की। दोनों तरफ जबरदस्त हरियाली वाला जंगल के बीच दूर से सुनाई पड़ती बेतवा नदी की आवाज, इस इलाके को बहुत ही शांत और रमणीय बनाती है। हलांकि यहां रहने और खाने-पीने की कोई खास सुविधा नहीं है। 

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31 जैन मंदिर, 19 मान स्तम्भ और  दीवालों पर उत्कीर्ण 200 अभिलेख 

देवगढ़ में बेतवा नदी के किनारे 41 में से बचे 31 जैन मंदिर दर्शनीय हैं। यहां 19 मान स्तम्भ और दीवालों पर उत्कीर्ण 200 अभिलेख सहित कुल 500 अभिलेख प्राप्त हुए हैं। जैन मंदिरों के ध्वंसावशेष यहां बहुतायत में विद्यमान हैं। यहां प्रतिहार, कल्चुरि और चंदेलों के शासनकाल की प्रतिमाएं और अभिलेख बिखरे पड़े हैं। बिखरी हुई मूर्तियों को संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। देवगढ़ पुरातत्वविदों का एक महत्वपूर्ण कला केंद्र है। इसे बेतवा नदी का आइसलैंड भी कहा जाता है।

दो भाइयों के बनवाए सात भोंयरे

देवगढ़ के 31 जैन मंदिर लोगों को काफी आकर्षित करते हैं। कर्णाली किला एक पहाड़ी पर स्थित है, जहां से बेतवा नदी का सुंदर नजारा देखा जा सकता है। छठी से सत्रहवीं शताब्दी तक यह स्थान जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था। मंदिर में जैन धर्म से संबंधित अनेक चित्र बने हुए हैं। बुंदेलखंड क्षेत्र' में सात भोंयरे (भूमिगत स्थान) बहुत प्रसिद्ध हैं, जो पावा, देवगढ़, सेरोंन, करगुवां, बंधा, पपौरा और थूवोन में स्थित हैं। कहा जाता है कि यह सात सात भोंयरे दो भाइयों अर्थात 'देवपत' और 'खेवपत' द्वारा निर्मित किए गए हैं। 

संग्रहालय में प्राचीन कलाओं का इतिहास किया संरक्षित

देवगढ़ के आसपास के एकत्रित की गई अनेक मूर्तियों को पास बने संग्रहालय में रखा गया है। भारतीय इतिहास की विभिन्न कलाओं को यहां संरक्षित किया गया है। देवगढ़ और आसपास की खुदाई से प्राप्त की गई मूर्तियों को यहां देखा जा सकता है।

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40 जैन मंदिरों में छोटे-बड़े मिलाकर अब 31 ही बचे

पहाड़ी के ऊपर की समतल भूमि पर अनेकों मंदिर बने हुए हैं। बहुत सारे तो ध्वस्त हो गये हैं। एक तरफ कुछ भग्नावशेष दिखे, जिसे वराह का मंदिर बताया गया, लेकिन इसका केवल अब चबूतरा बचा हुआ है। यहां कहा जाता है कि कुल 40 जैन मंदिर और थे। जिनमें छोटे बड़े मिलाकर 31 बचे हैं। 

सहस्त्रकूट खंभे पर एक हजार जैन मुनियों की उकेरी आकृति

शांतीनाथ जी का मंदिर यहां सबसे उल्लेखनीय है। यहां मनौती के रूप में खंभों का निर्माण करवाए जाने की परंपरा रही है, जिन्हें मानस्तम्भ कहा जाता है। ऐसे ही मनौती में शिलाखंड (आयगपट्ट) दिए जाने की भी प्रथा थी। यहां चारों तरफ से दिखने वाली “सर्वतोभद्र” प्रतिमा तथा 1000 जैन मुनियों की आकृति उकेरी हुई “सहस्त्रकूट” खंभे विशिष्ट हैं। जैन चौबीसी प्रतिमाओं को भी संकलित किया है। 

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गुफा मंदिर, राज और नहरघाटी के नीचे बेतवा नदी का मनोरम

लगभग 8 वीं से 17 वीं शताब्दी तक यह स्थल जैन मतावलंबियों (दिगंबर) का एक केन्द्र रहा है। यहां चट्टानों को काटकर बनाए गये गुफा मंदिर (सिद्ध की गुफा), राजघाटी, नहरघाटी आदि भी हैं। बेतवा नदी पहाड़ियों के नीचे बहती है और नीचे जाने के लिए पत्थरों को काट कर सीढ़ियां बनाई गयी हैं। सीढ़ियों से नीचे उतरते समय बाईं तरफ चट्टानों को तराश कर छोटे छोटे कमरे बना दिए गये हैं, जिनमें जैन मुनि एकांत में प्रकृति का आनंद लेते हुए अपनी साधना में निमग्न रहते थे। चट्टानों पर लगभग 8 वीं शताब्दी की ब्राह्मी लिपि में कई जगह लेख भी खुदे हैं।

लेखक: रोहित टंडन, उद्यमी

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