कुछ यादें - कुछ बातें: शिक्षक के रूप में क्लास का पहला दिन
पहली कक्षा पढ़ाने का मेरा अनुभव बिल्कुल प्राकृतिक था। जैसे किसी भी विद्यालय/ विश्वविद्यालय में पहले दिन कोई बच्चा पढ़ने अथवा कोई शिक्षक पढ़ाने जाए दोनों के लिए मुझे लगता है एक ही अनुभव है। जिस दिन विश्वविद्यालय में मुझे पहली क्लास लेनी थी। उस दिन मैं सुबह से ही बहुत असहज था। मुझे बहुत घबराहट भी हो रही थी। वैसे मैंने रात से ही क्लास की तैयारी की थी, फिर भी बार-बार मुझे अपने विषय को देखना पड़ रहा था।
कई बार शीशे के सामने उसको पढ़ाने का भी अभ्यास कर रहा था। जैसे-जैसे समय पास आ रहा था वैसे-वैसे असहजता और घबराहट बढ़ती जा रही थी। मुझे याद है कि सुबह 11 बजे से मेरी क्लास थी। मैं कोई 9:30 बजे ही विश्वविद्यालय पहुंच गया था। बच्चे आना शुरू हो गए थे। मैं सोच रहा था कि कुछ बच्चों से क्लास के बाहर ही मुखातिब हो लूं। एक-दो बच्चों से बातचीत भी की, लेकिन बार-बार मेरा ध्यान अपने विषय के नोट्स पर जा रहा था।
सुबह के 10 बजते ही अन्य शिक्षक अपनी क्लास की तरफ निर्भीकता के साथ चले गए। मुझे उनकी निर्भीकता देखकर थोड़ा आश्चर्य हुआ। मन में लगा कि शायद इन्होंने रात में क्लास की तैयारी ठीक से की थी। थोड़ी देर में एक वरिष्ठ शिक्षक मिले और मेरी असजता दूर करते हुए कहा कि यदि कोई विषय ठीक से नहीं बता पाइएगा तो बच्चों से कहिएगा कल पढ़कर आऊंगा तब बताऊंगा।
यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी। मैं ठीक 11 अपनी क्लास में पहुंचा और बुनियादी रूप से क्लास पढ़ना शुरू किया। मेरी असहजता और घबराहट मुझे साफ महसूस हो रही थी। मैं अपने पैरों में कंपन का भी एहसास कर रहा था, किंतु मैंने बहुत ही धैर्य से उसको चेहरे पर आने से रोका। जैसे-जैसे समय बिता 10 से 15 मिनट के बाद मैं सहज होने लगा। बच्चे भी मुझमें और मेरे विषय में उत्सुक दिखे।
फिर क्या था 12 कब बज गया पता ही नहीं चला। किसी ने बताया दूसरे शिक्षक कक्षा के दरवाजे पर खड़े हैं। मैं बाहर निकलकर उन शिक्षक से अनुरोध किया कृपया मेरे बारे में छात्रों से प्रतिक्रिया अवश्य ले लीजिएगा। हालांकि प्रतिक्रिया जानने से पहले ही मेरा आत्मविश्वास बढ़ चुका थी। ईश्वर के आशीर्वाद से फीडबैक भी बहुत अच्छा आया। उसके बाद आज तक पीछे मुड़कर नहीं देखा। मैं 25 वर्षों में 12,000 से ज्यादा छात्रों को पढ़ा चुका हूं, प्रतिदिन करीब 300 छात्रों को पढ़ाता हूं। किंतु उस दिन का अनुभव जो उन 45 छात्रों के साथ था, वह नहीं भूल पाता हूं।
यह जरूर कहूंगा कि जैसे कोई मां अपने पहले बच्चे से बहुत कुछ सिखती है, वैसे ही मैं भी अपने प्रथम बैच के बच्चों से सीखा है। वह मेरे शिष्य ही नहीं, गुरु भी थे। आज भी उन 45 बच्चों का नाम मुझे याद है और उनमें 30-35 कहां है इसके बारे में भी पूरी जानकारी है। अक्सर दूरभाष के माध्यम से बात भी हो जाती है। कई छात्र/छात्राएं तो मेरे घर भी आ चुके हैं और कई छात्रों के मैं घर भी जा चुका हूं। वैसे तो सभी छात्र मेरे परिवार हैं, किंतु प्रथम बैच के बच्चों से लगाव ज्यादा ही है। वह मेरे परिवार के अभिन्न अंग हैं और शायद जब तक जीवन है वह मुझे याद रहेंगे। सुधीर प्रकाश, सह-आचार्य (गणित) अभियांत्रिकी एवं तकनीकी संस्थान, डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, अयोध्या।
