करुणा, मानवता और सह जीवन की आधारशिला है
करुणा मानवीय हृदय का सुकोमल भाव है। यह मानवता का सर्जक और सह जीवन का मुख्य कारक भाव है। करुणा का भाव व्यक्ति को पीड़ित प्राणी के अंत: करण से जोड़ देता है। करुणा मानव हृदय की अनमोल संपदा है। सर्वोच्च विचार धारा और आत्मा का अमृत है। यह जब मानव हृदय से समाप्त हो जाता है तो मानव मन मात्र पत्थर के रूप में परिणत हो जाता है। किसी पीड़ित प्राणी को देखकर अपने हृदय में एक हलचल खड़ी होना, एक स्पन्दन खड़ा होना, मन को कंपन आना यह करुणा का जागरण है। करुणा प्रेरित व्यक्ति पीड़ित व्यक्ति को कष्ट मुक्त कर के अत्मिक आनंद का अनुभव करता है। अमेरिका के राष्ट्र पति अब्राहम लिंकन के जीवन की घटना इस तथ्य को अधिक स्पष्ट कर देगी।
एक बार वे मित्रों के साथ कहीं जा रहे थे, उन्होंने गटर के नाले में एक सूअर के बच्चे को करुण रुदन करते सुना। वे तत्काल उस गटर में उतर गए और सूअर के बच्चे को बाहर ले आए। कपड़े सब खराब हो गए थे। मित्रों ने कहा आपने यह क्या कर दिया, सारे कपड़े गंदे कर दिए। लिंकन ने कहा ये तो अभी धुल जाएंगे यदि मैं इस सूअर के बच्चे को तड़पता छोड़कर चला जाता तो रात भर मैं चैन से सो भी नहीं पाता। इसे बचाकर मैंने अपना चैन ही बचाया है। अब मैं आराम से नींद ले सकूंगा।
उक्त उदाहरण से स्पष्ट होता है कि करुणा प्रेरित व्यक्ति जो सेवा करता है वह किसी पर उपकार करने के लिए नहीं, किंतु अपने आत्मिक आनंद के लिए वह ऐसा करता है। पांडु पत्नी राज माता कुंती देवी ने तो एक ब्राह्मण के बच्चे को बचाने को अपने पुत्र को मृत्यु के साक्षात अवतार बक राक्षस से भिड़ने को भेज दिया, मेघरथ और शिवि जैसे आदर्श हमारे इतिहास के अनमोल आदर्श है। अपने तन का बलिदान देकर भी एक कबूतर को बचा लेना उनका परम धर्म बन गया था।
करुणा सह जीवन की प्रबल आधार शिला है। परिवार और समाज तभी आदर्श और श्रेष्ठ सिद्ध होता है जब उनमें प्रत्येक व्यक्ति परस्पर करुणा भाव से अनुप्राणित होते हैं। सेवा का उच्चतम आदर्श करुणा से ही चरितार्थ होता है। आज जन जीवन की मानसिकता में करुणा का स्रोत सूखता चला जा रहा है। फलत मानव राक्षस जैसी प्रवृतियां करने लगा है। हत्याएं लूटपाट अत्याचार देश में बढ़ रहे है। सभी चिंतित है, किंतु उसका उपाय करुणा भाव है। देश में इस भाव से जागरण का प्रयत्न करना चाहिए। हम अपनी आस्थाएं खोकर, सबकुछ खो देंगे। -कांतिलाल मांडोत
हम पारंपरिक रूप से अनेक श्रद्धा और आस्थाओं से जुड़े हुए हैं। हमारी संस्कृति और हमारे धर्म वह आयामी है। सभी धर्मों की श्रेष्ठ प्रवृतियों और सिद्धांतों के प्रति हम आस्थावान रहते आए हैं। एक दूसरे के प्रति सम्मान भाव से संयुक्त रहना हमारी मानसिक प्रतिबद्धता है। उदारता हमारे विचारों का प्रमुख तत्व है। स्यादवाद अर्थात् अनेकांत वाद हमारी समस्त प्रवृतियों का आस्थाओं का अन्तर्निहित तत्व है, हम इसे कभी खो नहीं सकते। इस को खो देने का अर्थ होगा अपना अस्तित्व ही समाप्त कर देना। कुछ संस्कृतियां जो भारत की मिट्टी में नहीं उपजी है, नितान्त असहिष्णु और भोग वादी है। वे मानव को पाशविक स्तर तक भोगवादी बनाने को प्रस्तुत है। किन्हीं विशिष्ट तत्वों के प्रति आस्था का वहां कोई निश्चित आधार नहीं है। वे संस्कृतियां भारत की महान तप संस्कृति को क्षति पहुंचाने का कार्यकर रही है। ऐसी स्थिति में देश के प्रबुद्ध वर्ग को गहनता के साथ यह सोचना होगा कि हम इस महान संस्कृति के क्षरण को कैसे रोक पाए ?
आस्था और विश्वास का संबल वह शक्ति है जो राष्ट्र और संस्कृति की मौलिकता को बचा सकती है, हमें दृढ़ता के साथ इस दिशा में प्रयत्न करना चाहिये ।
हमारे धर्म हमारी संस्कृति के प्राण है, धार्मिक अनुष्ठान साधनाएं हमारे श्रेष्ठ संस्कार है, प्रेरणा है। इन्हे अक्षुण्ण रख कर ही हम अपनी संस्कृति को बचा सकते है।
भारत के सभी धर्म संप्रदायों को पारस्परिक सम्मान और सहयोग के साथ जुड़ कर रहना चाहिये । कोई धर्म संप्रदाय का शत्रु नहीं है।
सभी धर्म संप्रदायों का शत्रु अधर्म है। सभी को मिलकर अधर्म के विरुद्ध लड़ना चाहिये । तनिक सोचिये कि धार्मिक आस्था ही नहीं रहेगी तो कोई धर्म संप्रदाय कैसे बचेगा ?
सभी धर्म संप्रदायें आस्था के आंगन में ही फलते फूलते हैं। अतः जनता की आस्था अनास्था में न बदले इसके लिये सभी को प्रयास करना चाहिये ।
नास्तिकता ही धर्म विरोधी शक्ति है उसे ही निरस्त करने का प्रयास होना चाहिये। धर्म संप्रदायें परस्पर एक दूसरे को निरस्त करने का प्रयास क्यों करे ? पारस्परिक संघर्षों से नास्तिकता के लिये भूमिका तैयार होती है।
