पौराणिक कथा: सत्य का प्रकाश
राजा हरिश्चंद्र वे अपने सत्य, न्याय और वचनपालन के लिए पूरे आर्यावर्त में प्रसिद्ध थे। उनके राज्य में कोई दुखी नहीं था, सब सुख और शांति से जीवन व्यतीत करते थे। एक दिन महर्षि विश्वामित्र ने उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया। उन्होंने राजा के पास जाकर कहा- “हे राजन, तुमने एक यज्ञ के समय मुझे दान देने का वचन दिया था। अब मैं वही दान लेने आया हूं।”
राजा ने विनम्रता से कहा, “ऋ षिवर, आप जो चाहें, मैं देने को तत्पर हूं।” विश्वामित्र ने कहा- “मुझे अपना सारा राज्य चाहिए।” हरिश्चंद्र ने बिना विलंब किए कहा- “ऋ षिवर, राज्य आपका है।” उन्होंने अपना सिंहासन त्याग दिया और अपनी पत्नी तारामती तथा पुत्र रोहिताश्व के साथ वन की ओर चल पड़े।
विश्वामित्र ने कहा- “राज्य तो मेरा हुआ, पर यज्ञ की दक्षिणा अभी बाकी है।” राजा ने कहा, “मेरे पास कुछ नहीं बचा, पर मैं वचन नहीं तोड़ूंगा। मैं श्रम करके दक्षिणा दूंगा।” उन्होंने बनारस जाकर एक शवदाह गृह में काम करना शुरू किया, जहां मृत शरीरों की चिता जलाने का कार्य करते थे। राजा हरिश्चंद्र की पत्नी तारामती वहीं कपड़े धोने का काम करती थीं और पुत्र रोहिताश्व लकड़ियां बटोरता था।
एक दिन भाग्य ने और भी कठोर परीक्षा ली, उनका पुत्र सर्पदंश से मर गया। तारामती उसका शव लेकर श्मशान पहुंची, पर हरिश्चंद्र अपने कर्तव्य से बंधे थे। उन्होंने कहा, “मुझे नियमों के अनुसार शवदाह शुल्क देना होगा।” तारामती रो पड़ी- “मैं तुम्हारी पत्नी हूं, यह तुम्हारा पुत्र है।” राजा ने गंभीर स्वर में कहा- “यहां मैं राजा नहीं, केवल दास हूं। मुझे अपना धर्म निभाना होगा।”
तभी आकाशवाणी हुई- “राजन, तुम्हारी परीक्षा पूरी हुई। तुमने सत्य और धर्म की रक्षा के लिए जो कष्ट सहे, वह संसार के लिए उदाहरण हैं।” देवता प्रकट हुए, पुत्र जीवित हो गया और हरिश्चंद्र को पुनः उनका राज्य मिला।
