बरेली: आजादी के एक साल बाद ‘सनम’ दिखा कुमार सिनेमा ने बनायी थी पहचान
बरेली, अमृत विचार। देश की आजादी को एक साल ही हुआ हुआ था। बड़े-बड़े बैनर की फिल्में बनना शुरू हो गईं थी। लिहाजा इन फिल्मों को दिखाने के लिए सिनेमाघरों की जरूरत भी थी। उस जमाने में बरेली जैसे शहरों में सिनेमाघरों का कारोबार एक क्रांति की तरह उभरकर सामने आया। इसी दौर में बनकर …
बरेली, अमृत विचार। देश की आजादी को एक साल ही हुआ हुआ था। बड़े-बड़े बैनर की फिल्में बनना शुरू हो गईं थी। लिहाजा इन फिल्मों को दिखाने के लिए सिनेमाघरों की जरूरत भी थी। उस जमाने में बरेली जैसे शहरों में सिनेमाघरों का कारोबार एक क्रांति की तरह उभरकर सामने आया। इसी दौर में बनकर तैयार हुआ शहर के बीचो-बीच मौजूद कुमार टाकीज।
1948 में सिनेमा घर चलाने के मकसद से इसका भवन बनकर तैयार हुआ। 1951 में सबसे पहली फिल्म देवानंद और सुरईया की सनम दिखायी गयी। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के दौर में द ऑल इंडिया फिल्म कॉर्पोरेशन का यह टॉकीज दर्शकों से भरा रहता था। आसपास के जनपदों से लोग फिल्म देखने आते थे। यह वो दौर था जब लोगों के घरों में टीवी नहीं हुआ करता था और मनोरंजन के लिए लोग सिनेमा को चुनते थे। धूल का फूल, लैला मजनू, दो रास्ते, वक्त, बेटा-बेटी, आशा, निकाह, बॉम्बे और तवायफ जैसी चर्चित फिल्मों ने जबरदस्त कारोबार किया।

सिनेमा के प्रति लोगों की दीवानगी का आलम यह था कि उस वक्त शो के बीच मामूली गड़बड़ी आने की वजह से दर्शकों के उग्र हो जाने का आशंका रहती थी। थियेटर के मैनेजर नगेंद्र दत्त शर्मा बताते हैं कि साल 1995 में आई संजय दत्त कि जय विक्रांता बुरी तरह फ्लॉप हई थी मगर फिल्म का 95 फीसद कारोबार केवल कुमार टॉकीज से हुआ। कुमार टॉकीज का कई बार नवीनीकरण किया गया। आज इसमें 732 दर्शक एक साथ फिल्म देख सकते हैं।
सिनेमा यूएफओ तकनीक से लैस है, लेकिन ओटीटी और मल्टीप्लेक्स के जमाने में दर्शकों का भारी टोटा है। फिल्मों के नाम पर केवल पुराने शो दिखाए जाते हैं। 90 के दशक तक आने वाली फिल्मों के लिए यहां दर्शकों की भीड़ रहती थी। त्योहारों के अलावा भी अक्सर नई फिल्म लगने पर शो हाउस फुल हुआ करते थे मगर आज स्थिति यह है कि किसी तरह इसे चालू रखा गया है।
हिम्मत दिखाकर चलाई थी बॉम्बे फिल्म
साल 1995 में आई बॉम्बे फिल्म की कहानी को लेकर काफी विवाद हुआ। स्थिति यह हुई कि फिल्म का जगह-जगह विरोध होने लगा। बरेली के आसपास के जनपदों में भी कोई सिनेमाघर फिल्म दिखाने को तैयार नहीं हुआ, मैनेजर नगेंद्र दत्त शर्मा बताते हैं कि तत्कालीन पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों से मदद मांगी तो उन्होंने भी हाथ खड़े कर दिए लेकिन फिर भी हिम्मत दिखाकर फिल्म को कुमार टॉकीज में रिलीज किया गया और फिल्म 100 दिन तक लगातार चली जिससे काफी अच्छी कमाई हुई। बॉम्बे फिल्म का शो चलाते वक्त काफी सतर्क रहना पड़ता था। कुछ खुराफातियों ने डराने के मकसद से तेज धमाके वाला पटाखा तक फोड़ दिया जिससे एक बार तो दर्शकों में खलबली मच गई मगर बिना किसी डर के फिल्म का प्रदर्शन जारी रखा।

ट्रॉफियां दिलाती हैं सिंगल सक्रीन का सुनहरा दौर
कुमार टॉकीज की लोकप्रियता और फिल्मों के प्रति लोगों की दीवानगी यहां मौजूद ट्रॉफियां जाहिर करती हैं। 10 से ज्यादा फिल्मों के लिए कुमार टॉकीज को ट्रॉफियां मिली जो आज भी यहां मौजूद हैं। मैनेजर की मानें तो यहां लगने वाली अधिकतर फिल्में 10 हफ्ते से पहले तो उतरती ही नहीं थीं। आज इन ट्रॉफियों को देखकर केवल सिंगल सक्रीन के सुनहरे इतिहास को याद किया जा सकता है। बेटी-बेटा, फूल पत्थर जैसी फिल्मों के लिए कुमार टॉकीज को ट्राफी मिली थी।
मौजूदा स्थिति देखकर होता है अफसोस
यहां काम करने वाले अनिल कुमार शर्मा बताते हैं उन्होने अपने जीवन के 60 बसंत देख लिए हैं। पहले प्रभा सिनेमा में बुकिंग पर थे कई साल से यहां काम कर रहे हैं। मगर बीते दशक में सिनेमा घरों की जो स्थिति हुई उसे देखकर अफसोस होता है। अब सब कुछ मोबाइल पर मौजूद है। इस वक्त सलमान खान की राधे चल रही है, यह बरेली में सिनेमाघर के अंदर कुमार टॉकीज में ही रिलीज हुई। लेकिन क्या फायदा फिल्म को दो महीने पहले ईद पर पहले ही ओटीटी पर रिलीज कर दिया गया था। अब सिनेमाघर खुले हैं तो पर्दे पर रिलीज हुई है। मगर कारोबार नहीं हो रहा।
