महाकवि त्रिलोचनः जनपद की चेतना और तपा-तपाया जीवन राग…
त्रिलोचन ने सन् 1936 के आसपास कविता लिखना आरंभ किया था। वह दौर हिन्दी कविता में छायावाद के उत्कर्ष एवं अवसान का था। हिन्दी काव्याकाश पर नवस्वच्छंदतावादी, प्रगतिवादी एवं राष्ट्रीय चेतना के कवियों का मिलाजुला स्वर मुखरित होने लगा था। हरिवंश राय ‘बच्चन’, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, माखनलाल …
त्रिलोचन ने सन् 1936 के आसपास कविता लिखना आरंभ किया था। वह दौर हिन्दी कविता में छायावाद के उत्कर्ष एवं अवसान का था। हिन्दी काव्याकाश पर नवस्वच्छंदतावादी, प्रगतिवादी एवं राष्ट्रीय चेतना के कवियों का मिलाजुला स्वर मुखरित होने लगा था। हरिवंश राय ‘बच्चन’, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, माखनलाल चतुर्वेदी ( एक भारतीय आत्मा ), बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, सोहनलाल द्विवेदी, गोपाल सिंह ‘नेपाली’, कलक्टर सिंह केसरी, रामगोपाल शर्मा ‘रूद्र’ एवं केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ सदृश कवि मंच पर कविता सुनाकर और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर अपनी जगह बनाने लगे थे।
पिछली पीढ़ी के कवियों में द्विवेदीयुगीन प्रतिनिधि कवियों में मैथिलीशरण गुप्त और अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ एवं छायावादी कवि पंत, प्रसाद, निराला के साथ महादेवी वर्मा भी नए समय में नयी काव्य संभावनाओं के संधान में सक्रिय थे। ऐसे ही हिन्दी कविता के संपन्न और उर्वर दौर में त्रिलोचन ने चुपके से क़दम रखा था। उनका पहला कविता संग्रह ‘धरती’ सन् 1945 में प्रकाशित हुआ था।
‘तार सप्तक’ के सन् 1943 में प्रकाशन के ठीक दो वर्ष बाद- त्रिलोचन के बारे में कहा जाता है कि वे एक लंबे समय तक बेपहचान बने रहे। वे उस दौर में अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित हो रहे सप्तकों में कहीं ‘स्पेस’ नहीं पा सके थे। वे गुमनाम थे। वे न तो प्रयोगवादी या नई कवितावादी में शुमार हो पाते थे न ही प्रगतिशील कवियों में ही। उन्होंने अपनी इस निर्मम उपेक्षा पर तटस्थ भाव से एक सॉनेट में लिखा था- “प्रगतिशील कवियों की नयी लिस्ट निकली है। उसमें कहीं त्रिलोचन का तो नाम नहीं था।”
यह हिन्दी कवियों एवं आलोचकों की गुटबाज़ी एवं ओछी राजनीति पर एक मर्मस्पर्शी टिप्पणी है।
दरअसल सन् 1980 के बाद त्रिलोचन एक कवि के रूप में चर्चा में आते हैं। सन् 1980 में प्रकाशित उनके काव्य संग्रह ‘ताप के ताए हुए दिन’ पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलता है। वे साठ की उम्र पार करने के बाद कविता के इलाक़े में प्रसिद्ध होते हैं। वे देश की आज़ादी के बाद के पाँच बड़े प्रगतिशील कवियों -नागार्जुन,केदार,शमशेर, मुक्तिबोध के साथ परिगणित किए जाने लगते हैं। अगर त्रयी की बात की जाए तो वे नागार्जुन एवं केदारनाथ अग्रवाल के साथ एक त्रयी का निर्माण करते हैं।
त्रिलोचन एक ऐसे प्रगतिशील कवि हैं जिनकी कविताओं में एक तरह की स्थानीयता और जनपदीयता की चेतना परिलक्षित की जा सकती है | वे शांत एवं संयत भाव के कवि हैं। उनकी कविताओं में आवेश या आक्रोश की जगह एक विशेष प्रकार की ‘कूलनेस’ है। उनकी कविताओं में मनुष्य का संघर्ष, स्वाभिमान एवं संकल्प दिखाई देता है। वे दृढ़ निश्चयी कवि कहे जा सकते हैं। उनके काव्य में अवध की लोकसंस्कृति, लोकपरंपरा व माटी-पानी की सुगंध व्याप्त है।
वे परंपरा से संवाद का एक सघन व आत्मीय रिश्ता बनाते हैं। वे जनता को ‘पर्वत की दुहिता’ व ‘सहस्रशीर्ष पुरुष’ की संज्ञा से विभूषित करते हैं। वे लिखते हैं — ” आने दो, यदि महाकुंभ में जन आता है, कुछ तो अपने मन का परिवर्तन पाता है।” ठीक इसके विपरीत नागार्जुन ‘ कुंभ मेले में तीर्थराज प्रयाग की ओर अभिमुख लाखोंलाख की गतानुगतिक भेड़ियाधसान भीड़ की रूढ़ धारणा अथवा मानसिकता पर प्रहार करते हैं जो ‘संगम के जादुई जल’ में लगा लगाकर डूब वापस आ जाती है।
त्रिलोचन जहाँ ऐसे लोक से जुड़े जन के प्रति नरम एवं उदार दृष्टि अपनाते हैं, मनबहलाव या एकरसता या एक क़िस्म के ठहरे जीवन से बाहर आने की बात करते हैं, वही कवि नागार्जुन अंधविश्वासी मन पर शब्दों से चाबुक चलाते हैं। एक कुंभ मेले की व्यर्थता पर प्रश्न उठाता है तो दूसरा चुप रहता है। दरअसल मेरा मानना है कि अपनी पीढ़ी के पाँचों शीर्ष कवियों में सबसे कम राजनीतिक चेतना के कवि है त्रिलोचन। वे अपनी कविताओं में वैचारिक मुखरता से भी बचने की कोशिश करते हैं।
वे इस अर्थ में नागार्जुन, केदार एवं मुक्तिबोध से अलग मिज़ाज़ के कवि हैं | वे शमशेर की तरह बारीक़ संवेदना या केदार की तरह प्रगीतात्मक ज़मीन के भी कवि नहीं हैं। वे अभिव्यक्ति की सादगी एवं पारदर्शिता के कवि हैं। वैसे वे कई जगहों पर संश्लिष्ट व दुरूह भी दिखते हैं, भाषा व वाक्यविन्यास की सरलता के बावजूद। वे कई सॉनेटों या कविताओं में अपने को अन्य पुरुष के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वह अन्य पुरुष संघर्ष की भट्ठी में तपा-तपाया, सँवलाया-करियाया एक ऐसा मनई है जिसकी कद-काठी एवं छवि गंगा-सरयू के मैदानी इलाक़े में हाड़तोड़ मेहनत करने वाले संयमी, सहिष्णु,.मौन कर्मयोगी किसान या खेतिहर मज़दूर से मिलती-जुलती है। उनकी कविता में गर्मी, जाड़ा या बरसात के मौसम में साधारण जन के अनुभवों की कई छवियाँ देखने को मिलती हैं।
त्रिलोचन की कविताएँ देशज आधुनिकता से संपृक्त हैं। उनपर किसी तरह की आरोपित चेतनादृष्टि नहीं देखी जा सकती है। वे अपने समय के चालू फ़ैशन से या कृत्रिम काव्य मुहावरों से दूर रहते हैं । वे लिखते हैं — ” यही त्रिलोचन है, वह जिसके तन पर गंदे कपड़े हैं। कपड़े भी कैसे फटे-फटे लगते हैं। यह भी फैशन है,फैशन से कटे-कटे लगते हैं। आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी लिखते हैं कि ‘ फ़ैशन से कट पाना ही निजता है। बिना इस निजता के सर्जना असंभव है। फ़ैशन रीतिबद्धता है।
त्रिलोचन की कविता में एक भिखारी भी ‘शाहों की भाषा’ में बोला करता है। वे अपनी कविताओं के ज़रिए अनपढ़ किन्तु स्वाभिमानी व दृढ़ निश्चयी चरित्रों से आत्मीय संवाद का रिश्ता क़ायम करते हैं। वे ऐसे पात्रों का लघु-लघु आख्यान रचते हैं। भोरई केवट, नगई महरा, चंपा आदि ऐसे ही चरित्र हैं। दूसरे विश्वयुद्ध की दारुण स्थितियों के बीच भोरई केवट बोलता है – “भीतर की प्राणवायु सब बाहर निकालकर/ उसने एक बात कही/ जीवन की पीड़ा भरी/बाबू इस मँहगी के मारे किसी तरह अब तो / और नहीं जिया जाता / और कबतक चलेगी लड़ाई यह /” आगे कवि कहता है — ” राष्ट्रों के स्वार्थ और कूटनीति /पूँजीपतियों की चालें /वह समझे तो कैसे /हियाई का वाशिंदा / वह भोरई केवट /”………
ऐसे चंपा भी गाँव-देहात की एक अनपढ़ लड़की है। उसके बाप का नाम सुंदर ग्वाला है। कवि चंपा से कहता है — ” तुम भी पढ़ लो/ हारे-गाढ़े काम सरेगा…… ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी / कुछ दिन बालम सँग-साथ रह जब चला जायेगा कलकत्ता /बड़ी दूर है कलकत्ता / कैसे उसे सँदेशा दोगी /कैसे उसके पत्र पढ़ोगी / चंपा पढ़ लेना अच्छा है /……”। इस पर कवि का ज़वाब देते हुए चंपा कहती है — “मैं तो ब्याह कभी न करूँगी / और कहीं जो ब्याह हो गया / तो अपने बालम को सँग-साथ रखूँगी /कलकत्ता में कभी न जाने दूँगी /कलकत्ते पर बजर गिरे |” यह कविता शहरी मध्यवर्ग के चालू स्त्री विमर्श के दायरे को तोड़ देती है।
इसमें चंपा ऐसे शहरीकरण की प्रवृति पर ‘बजर’ गिराती है जो हमारी लोकसंस्कृति की सहज विकसित धारा को बाधित कर विस्थापन की पीड़ादायी स्थितियों को जन्म देती है | यह कविता एक भोजपुरी -अवधी लोकगीत में उस करुण स्थिति का प्रत्याख्यान करती दिखाई देती है जिसमें एक विरहिणी नारी कहती है—“रेलिया न बैरी, जहजिया न बैरी, ई पइसवा बैरी हो /सँइयाँ के ले गइल बिदेसवा/ ई पइसवा बैरी हो।
“दरअसल यह छद्म औपनिवेशिक आधुनिक संस्कृति पर चोट के बहाने ‘बइरी पइसवा के राज’ (गोरख पाँड़े ) अर्थात् पूँजीवाद की आलोचना है । कवि उसका विलोम रचना चाहता है, चंपा जैसी देशज नायिकाओं के ज़रिए ।| दरअसल सारे उपद्रवों, पीड़ाओं व असमानताओं की जड़ में यह क्रूर पूँजीवाद ही है जो मानवीय सम्बन्धों को भी तार-तार कर रहा है । यहाँ चंपा का प्रतिरोध लोक की पारंपरिक चेतना का सहज हिस्सा जान पड़ता है | यह साधारण में असाधारण को चीन्हने -पहचानने का अद्भुत काव्य कौशल है कवि त्रिलोचन का ।
त्रिलोचन की कई कविताएँ प्रेम पर हैं । उनका प्रेम एकाकी या एकांतिक नहीं है। वह भी समाज से ही जुड़ने का एक उपक्रम है — “प्रेम व्यक्ति-व्यक्ति से समाज को पकड़ता है/जैसे फूल खिलता है / उसका पराग किसी और जगह पड़ता है /फूलों की दुनिया बन जाती है / प्रेम में अकेले भी हम अकेले नहीं हैं।”
त्रिलोचन ने कबीर,तुलसी, ग़ालिब पर कविताएँ लिखी है। उनका हिन्दी-उर्दू के महान कवियों के साथ विश्व की कई भाषाओं के बड़े कवियों के साथ भी उनकी काव्य सर्जना के माध्यम से सरोकार-संवाद रहा है। वे वास्तव में जीवन संघर्षों के बड़े कवि हैं । वे जन कवि हैं। उनकी कविताओं में वह जनपद है जो ‘भूखा-दूखा’ है। उस जनपद को राजनीति ने बराबर छला है। सच में त्रिलोचन की कविताएँ जीवन राग से जुड़ी, जीवन में गहरे धँसी एवं संघर्ष की प्रतिरोधी चेतना से संपृक्त हैं।
- चंद्रेश्वर
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