चरखा चलाती मां, धागा बनाती मां, बुनती है सपनों के खेस री,समझ ना पाऊं मैं -अमृता प्रीतम
अमृता प्रीतम की क़िताब के सफ़हों की धारियां नारीवाद का वो आधार हैं जिस पर लिख़े हर हर्फ़ से क्रांति की महक आती है। अपने एक इंटरव्यू के दौरान अमृता ने कहा कि, स्त्री की शक्ति से इन्कार करने वाला आदमी स्वयं की अवचेतना से इनकार करता है। स्त्री शक्ति पर ऐसी टीका अमृता ही …
अमृता प्रीतम की क़िताब के सफ़हों की धारियां नारीवाद का वो आधार हैं जिस पर लिख़े हर हर्फ़ से क्रांति की महक आती है। अपने एक इंटरव्यू के दौरान अमृता ने कहा कि, स्त्री की शक्ति से इन्कार करने वाला आदमी स्वयं की अवचेतना से इनकार करता है। स्त्री शक्ति पर ऐसी टीका अमृता ही दे सकती थीं। अमृता ने अपने ज़हन को सिर्फ़ काग़ज़ों पर ही नहीं उतारा, उसे शब्द-दर-शब्द जिया भी।
लिहाजा जब विभाजन हुआ और इसके लिए उन्होंने वारिस शाह को जब उनकी क़ब्र से ही बोलने का आह्वान किया तो उस आवाज़ में पंजाब की हज़ारों स्त्रियों की वेदना भी शामिल थी। एक हीर के रोने पर गाथा लिख डालने वाले वारिस शाह जब पंजाब की हज़ारों बेटियों के रोने पर भी नहीं बोले तो अमृता ने उन्हें कहा-
अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ कित्थों क़बरां विच्चों बोल
ते अज्ज किताब-ए-इश्क़ दा कोई अगला वरका फोल
इक रोई सी धी पंजाब दी तू लिख-लिख मारे वैन
अज्ज लक्खां धीयाँ रोंदियाँ तैनू वारिस शाह नु कैन
उठ दर्दमंदां देआ दर्देया उठ तक्क अपना पंजाब
अज्ज बेले लाशां बिछियाँ ते लहू दी भरी चनाब
इस पुकार ने अमृता का सोपान बढ़ा दिया था। अपनी मुखर कलम के साथ वह नारी स्वतंत्रता और स्वायत्ता का बेड़ा उठाने लगीं। उन्होंने समाज के हर वर्ग का ध्यान इस तरफ खींचा।
एक स्त्री होने के नाते नैसर्गिक है अमृता का मुरीद हो जाना। स्वच्छंद ख़याल जो कल्पना को पोषते हैं, उन्हें अमृता ने जीवंत किया है। वो एक लेखक नहीं बल्कि नारी-जीवन की अवधारणा का एक मुकम्मल उदाहरण हैं। उनके उपन्यास भी इन्हीं अवधारणा के प्रतिबिंब हैं। इन्हीं विशेषताओं की वजह से कोई भी महिला ख़ुद को अमृता प्रीतम के क़रीब महसूस करती है।
अमृता की कहानियों के किरदार भी इसी विचार को लक्षित करते हैं। उनके मशहूर उपन्यास ‘पिंजर’ की पात्र पूरो को उन्होंने शोषित लेकिन आत्मविश्वास से भरपूर दिखाया है। इस उपन्यास पर फ़िल्म भी बन चुकी है जिसका गाना चरखा चलाती मां उनकी पंजाबी कविता का रूपांतरण है। इसमें एक लड़की की विदाई की मार्मिक कहानी है।
चरखा चलाती मां
धागा बनाती मां
बुनती है सपनों के खेस री
समझ ना पाऊं मैं
किसको बताऊं मैं
मैया छुड़ाती क्यूं देस री
बेटों को देती है महल अटरिया
बेटी को देता परदेस री
जग में जनम क्यूं लेती है बेटी
आई क्यूं विदाई वाली रात री
अमृता स्त्रियों के विशेषाधिकार की पक्षधर नहीं थीं, लेकिन वह उनके लिए समानता चाहती थीं, उतना अधिकार जितना एक पुरुष को मिला हुआ है। इसलिए उन्होंने अर्धनारीश्वर का ज़िक्र करते हुए कहा कि एक स्त्री और पुरुष के साथ होने से ही सृष्टि का निर्माण होता है। वह दैहिक समझ से ऊपर आत्मिक मिलन का आख्यान करती थीं। इसलिए तो उन्होंने लिखा कि
मेरी सेज हाजिर है
पर जूते और कमीज की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
बस अपने अपने देश का रिवाज है……
अमृता और इमरोज़ का रिश्ता भी किसी शारीरिक स्पर्श से परे आत्मिक ही था और साहिर से उनकी मोहब्बत के संबंध बताते हुए वह कहती हैं कि साहिर की तबियत ख़राब होने पर उनके माथे पर बाम मलते हुए उन्हें अपनी सीमाओं का पता था।
कुछ वक्त पहले का वाकया भी याद आता है, अमृता की छवि इस कदर स्त्रीवादिता की थी कि एक कविता जो उन्होंने नहीं लिखी थी और चूंकि वह नारियों पर थी वह अमृता के नाम से वायरल हो गई। काफ़ी समय बाद असली कवि के सामने आने के बाद उसे हटाया गया। मेरे भी कुछ दोस्त कहते हैं कि संभव है अमृता की तरह लिखा जा सके लेकिन मुश्किल है कि उनकी तरह जीया जा सके।
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