जीवन व्यवस्था पर तंज करती है रघुवीर सहाय की ये कविता 

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Published By Jagat Mishra
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रघुवीर सहाय की रचनाओं में शोषण, अन्याय, हत्या-आत्महत्या, विषमता, दासता, राजनीतिक संप्रभुता, जाति-धर्म जैसे मुद्दे देखे जा सकते हैं।  

जीने का खेल

मुझे क्यों लग रहा है कि बच्चे घर में लौट आए
आंख मूंदे उनकी बोली उस वाले कमरे में
क्यों सुनने लगा हूं मैं
मेरी कल्पना उनके सब संवाद तर्कसहित सुनती है

एक दिन
मेरे अपने जीवन में ही खत्म होने वाला
है यह खेल
इस घर की दीवार पर मेरी तसवीर होगी
बच्चे आएंगे पर मेरी कल्पना में नहीं—अपने
समय से आएंगे
और उनकी बोली में उनका तर्क नहीं होगा
जिसको आज सुनता हूं।

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