आजादी के बाद भी जातिगत बंधनों का गुलाम है भारतीय समाज: हाईकोर्ट

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Published By Deepak Mishra
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प्रयागराज। आजादी के 75 वर्ष बीतने के बाद भी भारतीय जनमानस जातीयता के बंधनों में इस कदर जकड़ा हुआ है कि भारतीय परिवार अभी भी अपने बेटे या बेटी की शादी जाति के बाहर करने में शर्म महसूस करते हैं, यह हमारे समाज का काला चेहरा है। उक्त टिप्पणी न्यायमूर्ति राहुल चतुर्वेदी की एकल पीठ ने पीड़िता और उसके पति (आरोपी) द्वारा संयुक्त रूप से दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए की, जिसमें आरोपी के खिलाफ आईपीसी की विभिन्न धाराओं और पोक्सो एक्ट की धारा 7/8 के तहत दाखिल चार्जशीट को रद्द करने की मांग की गई थी। 

दरअसल पीड़िता के पिता ने फरवरी 2019 में जाति के आधार पर आरोपी के खिलाफ मामला दर्ज करवाया। हालांकि बाद में पीड़िता ने आरोपी से शादी कर ली और सितंबर 2022 में उनके बच्चे का जन्म हुआ, इसलिए वे दोनों आरोपी के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए अदालत चले गए। पीड़िता का पिता अभी भी अंतर्जातीय विवाह होने के कारण केस लड़ रहा है, जबकि दंपति इस केस को आगे नहीं बढ़ाना चाहते। 

कोर्ट ने स्थिति को देखते हुए टिप्पणी की कि पिता को अपनी लड़की के उज्जवल भविष्य के लिए केस वापस ले लेना चाहिए। यह हमारे समाज की काली सच्चाई है कि परिवार अभी भी अपनी बेटे और बेटी की अंतर्जातीय शादी करने में शर्म महसूस करते हैं। 

मौजूदा मामले में पीड़ित लड़की ओबीसी समुदाय से हैं, जबकि आरोपी लड़का अनुसूचित जाति का है और दोनों ने प्रेम में पड़कर किशोरावस्था में शादी करने का फैसला कर लिया। इस विवाह ने एक बच्चे को जन्म भी दिया। सभी स्तरों पर विकास होने के बावजूद जातिगत मामलों में हम अभी भी पिछड़े हैं। याची के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त करते हुए कोर्ट ने कहा कि उसे मुकदमे की निरर्थक कवायद का सामना करना पड़ रहा है।

आजादी के 75 साल बीतने के बाद भी यह सामाजिक बुराई इतनी गहरी जड़ें जमा चुकी है कि इसे उखाड़ फेंकना कठिन हो गया है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि आईपीसी की धारा 366 के तहत केवल अपराध तभी बनता है, जब शादी के लिए जबरदस्ती अपहरण या महिला को बहला-फुसलाकर मजबूर किया गया हो। मौजूदा मामले में आगे की कार्यवाही पर रोक लगाते हुए कोर्ट ने लड़की के पिता को आगामी 28 अप्रैल को कोर्ट में पेश होने का निर्देश दिया है।

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