मुरादाबाद : अरे भई, उन दिनों की याद आते ही कांप उठता है मन

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Published By Bhawna
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किसी ने बेटा गंवाया तो किसी ने भाई, पुलिस की गोली के निशाने पर आए कई लोग

बीएसएफ के नियंत्रण से माहौल सुधरा, सांसद ने सिरे से खारिज की दंगे की रिपोर्ट, दंगे के चलते एक साल तक शहर में रहा था तनाव कर्फ्यू में लोगों ने झेली थीं दुश्वारियां

मुरादाबाद, अमृत विचार। 13 अगस्त 1980 का दिन महानगर के माथे पर एक काला धब्बा है। इस दंगे को याद कर लोग सिहर उठते हैं। उनका कहना है कि दंगे के चलते एक साल तक शहर का माहौल बिगड़ा रहा था। कोई पुलिस को दोषी ठहराता है तो कोई इसे राजनीतिक नजरिये से देखता है। लेकिन, सबसे ज्यादा दंगे ने हिंदू-मुस्लिम के बीच खाई बढ़ाई। हालांकि समय के साथ तनाव कम हुआ और शहर के लोगों की जिंदगी पटरी पर आई। ईद के दिन दंगे ने लोगों को मानसिक रूप से झकझोर किया। इससे लोगों की आर्थिक स्थिति भी कमजोर हुई थी। दंगे की आग शांत करने के लिए कई दिनों तक कर्फ्यू ने सभी को घर में कैद कर दिया था। यह घटना सांसद को शिद्दत से याद है। उनकी आंखों ने दंगे को देखा था। जिसे वह आज तक भूल नहीं पाए। 

बीएसएफ और प्रशासनिक अधिकारियों ने संभाला मोर्चा
 एक तरफ ईद मन रही थी तो दूसरी ओर तीजोत्सव का रंग शहर पर चढ़ा था। इस बीच ईद की नमाज के दौरान अचानक हिंदू- मुस्लिम मिश्रित आबादी में अचानक अफरा-तफरी मच गई। दंगे का शोर जंगल में आग की तरह फैला तो हर कोई इसे जानने में जुट गया। इसे संभालने में प्रशासनिक अधिकारियों, पुलिस, बीएसएफ व पीएसी ने मोर्चा संभाला। महीनों तक कर्फ्यू चला। शुरुआत के 10-12 दिन तक लगातार कर्फ्यू ने समाज के हर वर्ग के लोगों को घरों में कैद कर दिया। इसकी याद आज भी लोगों के जहन में है। आपसी सौहार्द सुधरने में एक साल का समय लग गया। धीरे-धीरे समाज के बीच तनाव कम हुआ। साथ ही प्रबुद्ध वर्ग के लोगों ने आगे आकर माहौल को संभाला। -आदेश श्रीवास्तव, पूर्व अध्यक्ष दी बार एसोसिएशन एंड लाइब्रेरी 


रिपोर्ट सिरे से खारिज करता हूं पुलिस ने नहीं बरता था संयम
1980 के दंगे का मैं खुद चश्मदीद हूं। उस समय एमबीबीएस का छात्र था और ईद मनाने घर पर आया था। ईद की नमाज के दौरान नाले से एक जंगली जानवर निकलकर शफ में आ गया। इसके बाद भगदड़ मच गई। पुलिस ने बिना सोचे समझे सीधी गोली चलानी शुरू कर दी। आंसू गैस के गोले तक छोड़ना जरूरी नहीं समझा। इस दंगे की आग को भड़काने में पीएसी भी दोषी थी। मुस्लिम लीग के डॉ.शमीम और बेलचा पार्टी के डॉ.हामिद के नाम प्रमुखता से आए। हालांकि डॉ.हामिद ने पुलिस को दंगे में बचाने का काम किया। लोगों ने पुलिस और पीएसी की कार्रवाई के विरोध में तत्कालीन गलशहीद चौकी फूंक दी। दोनों समुदायों में मनमुटाव बढ़ गया। लेकिन बीएसएफ ने आकर मोर्चा संभाला तो दोनों वर्ग के लोगों को एक समान रूप से मदद की। बीएसएफ के जवानों ने घरों तक जरूरत का सामान पहुंचाया। बीएसएफ ने लोगों का विश्वास जीता और जिंदगी को पटरी पर लाने में मदद की। जो रिपोर्ट सदन में रखी गई है, उसे मैं सिरे से खारिज करता हूं। इस दंगे को राजनीतिक लाभ के नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए।    डॉ.एसटी हसन, सांसद सपा

हमें तो चेकिंग के दौरान रोक लिया गया था
इतिहासकार प्रो.अजय अनुपम दंगे की चर्चा में अपनी स्मृतियों के पन्ने खोलते हैं। कहते हैं कि उन दिनों मैं सनातन हिंदू इंटरमीडिएट कॉलेज ठाकुरद्वारा में अध्यापनरत था। अवकाश के दिनों में घर आया था, इस बीच दंगा भड़क गया। चेकिंग के दौरान मुझे सुरक्षा बल के जवानों ने रोक लिया था। प्रो. अनुपम कहते हैं कि मिश्रित आबादी वाले मोहल्लों में दंगा का असर अधिक हुआ था। संवेदनशील इलाकों में पीएसी तैनात थी और चौराहों पर सामान्य पुलिस बल। बताते हैं कि दिनदारपुरा में फायरिंग के बाद पुलिस दल पहुंच गया था। दीवान बाजार, रेती चौक सहित अन्य इलाकों में दंगा नियंत्रण में आ गया। हमारे मोहल्ले में ऊंची हवेलियां से जलते टायर फेंके गए दिन थे। दिन के 11 बज रहे थे, तभी मेरे घर पर भी जलता टायर गिरा। हमने खिड़की से नीचे झांक कर देखा तो भारी मात्रा में पुलिस बल जुटा था। चारों तरफ भागो-भागो का शोर था।

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