प्रयागराज : उत्तर प्रदेश गुंडा नियंत्रण अधिनियम के प्रावधानों के प्रयोग के लिए राज्य सरकार को निर्देश
प्रयागराज, अमृत विचार। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक मामले में कार्यकारी अधिकारियों द्वारा अनुचित ढंग से उत्तर प्रदेश गुंडा नियंत्रण अधिनियम, 1970 और उत्तर प्रदेश गैंगस्टर तथा सामाजिक गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1986 के प्रावधानों का उपयोग किए जाने पर कड़ी नाराजगी जताते हुए राज्य सरकार को इस अधिनियम की प्रयोज्यता के संबंध में आगामी 31 अक्टूबर तक समान दिशा निर्देश जारी करने का निर्देश दिया है।
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि यूपी राज्य में इस निवारक अधिनियम की प्रयोज्यता के संबंध में यूपी जिलों के कार्यकारी अधिकारियों में एकरूपता नहीं है, जिससे उपरोक्त अधिनियम के तहत जारी नोटिस को चुनौती देते हुए मामलों का अनुचित ढेर लग जाता है। कोर्ट ने अपने आदेश में आगे कहा कि खराब छवि वाले व्यक्ति के लिए कार्यकारी अधिकारियों को नोटिस जारी करने का अधिकार है, लेकिन एक या दो तुच्छ तथा महत्वहीन अपराधों से व्यक्ति को गुंडा के रूप में संबोधित करना अनुचित है। गुंडा विशेषण अपने आप में खराब है। लापरवाही और गैर जिम्मेदाराना ढंग से किसी व्यक्ति को गुंडा करार देने से उसका पूरा भविष्य और प्रतिष्ठा धूमिल हो जाती है, साथ ही उसके परिवार की प्रतिष्ठा को भी अपूरणीय क्षति पहुंचती है।
उक्त टिप्पणी न्यायमूर्ति राहुल चतुर्वेदी और न्यायमूर्ति मोहम्मद अजहर हुसैन इदरीसी की खंडपीठ ने की। दरअसल यूपी गुंडा अधिनियम (निष्कासन) की धारा 3 के तहत गोवर्धन नामक एक व्यक्ति के खिलाफ नोटिस जारी कर दी गई थी, जिसे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। उक्त नोटिस अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट (वित्त एवं राजस्व) अलीगढ़ द्वारा उसे आदतन अपराधी या उत्तर प्रदेश गुंडा नियंत्रण अधिनियम, 1970 की धारा 2(बी) में वर्णित मामलों में शामिल होने के आधार पर जारी किया गया था।
याची के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि उन्हें जारी किए गए नोटिस में केवल एक आपराधिक मामले और एक बीट रिपोर्ट का विवरण है,जबकि कोर्ट द्वारा तय परिभाषा और कानून के अनुसार आदतन अपराधी में अपराध की पुनरावृत्ति की प्रवृत्ति होती है। अंत में सभी तर्कों को सुनने के बाद न्यायालय ने कहा कि गुंडा अधिनियम के प्रावधानों का अंधाधुंध प्रयोग और लोगों को नोटिस भेजना कार्यकारी अधिकारियों की इच्छा या पसंद पर आधारित नहीं है। जब किसी को ऐसी नोटिस केवल एक मामले के आधार पर जारी की जाती है तो इसका नकारात्मक प्रभाव व्यक्ति के सामाजिक, पारिवारिक और मानसिक व्यवहार पर पड़ता है। मौजूदा मामले में कार्यकारी अधिकारियों द्वारा निर्धारित मुद्रित प्रोफार्मा पर बिना न्यायिक विवेक इस्तेमाल किये नोटिस जारी किया गया है। अंत में याचिका स्वीकार कर ली गई।
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