हल्द्वानी: कहीं विकास, कहीं वीरानी ये है उत्तराखंड की कहानी...

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Published By Bhupesh Kanaujia
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हल्द्वानी, अमृत विचार। आज राज्य गठन की 23वीं वर्षगांठ है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उत्तराखंड गठन के शुभकामना संदेश वायरल होंगे, राज्य विकास के कसीदे पढ़े जाएंगे और जश्न भी होगा। ठीक भी है 23 साल में राज्य ने कई उपलब्धियां हासिल की हैं।

मैदानों में उद्योगों का जाल बिछा, राज्य में सड़कों की लंबाई बढ़ी, मेडिकल कॉलेज खुले, स्कूल-कॉलेजों की बाढ़ आ गई लेकिन पहाड़ वालों की जिंदगी में पलायन के सिवाय कोई खास बदलाव नहीं हुआ। यहां प्रसूताएं इलाज और रक्त के अभाव में आज भी दम तोड़ती हैं। हाल ही में अल्मोड़ा में हुई प्रसूता की मौत इसकी बानगी है।

आज भी कई जगह पहाड़ से बीमार आमा को सरकारी अस्पताल लाने के लिए सड़क है न एंबुलेंस। ग्रामीणों के कंधे एंबुलेंस बनते हैं। बुनियादी मुद्दे स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, बढ़ता अपराध एवं मानव वन्यजीव संघर्ष ये जख्म रिसते रहते हैं।

उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड का गठन पहाड़ के विकास की संकल्पना के साथ हुआ। पहाड़ में विकास के नाम पर सड़क घर-घर तक पहुंचाई गई लेकिन इस सड़क से विकास का पहिया तो पहाड़ नहीं चढ़ सका। हां, सड़क ने शहर का रास्ता दिखाया और आबाद गांव वीरान होते चले गए। पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार राज्य में 1,726 गांव वीरान हो गए हैं।

औसतन हर साल 75 गांव वीरान होते चले गए। बीते 4 सालों में 28,531 लोगों ने स्थायी और 3,07,310 लोगों ने अस्थायी तौर पर गांव छोड़ दिए हैं। राज्य में जो गांव आबाद भी हैं उनमें 49.7 प्रतिशत गांव ऐसे हैं जिनकी आबादी 200 लोगों से कम की है। कुछ में तो महज 15-20 लोग ही रहते हैं।

पलायन पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, चम्पावत, चमोली जिलों से ज्यादा हुआ है। इसके चलते पहाड़ी जिलों का विधानसभा में प्रतिनिधित्व भी घटना है, सीटें कम हो गईं हैं। कोविड-19 महामारी में लोगों के वापस पहाड़ पहुंचने पर रिवर्स पलायन की उम्मीदें थीं लेकिन स्थितियों में सुधार के बाद ये उम्मीदें भी खत्म हो गईं।

नाम मात्र के लोगों ने होम स्टे के जरिए पहाड़ में स्वरोजगार का जरिया बनाया। पलायन की वजहों में पहाड़ी जिलों में स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और व्यवसाय जैसी बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं होना भी हैं। ऐसे में अब राज्य खासकर पहाड़ के विकास के संकल्प का समय आ गया है। 

बातें, दावे और राजनीति पहाड़ की और आशियाना मैदान में
राज्य गठन के बाद सबसे ज्यादा किसी को फायदा हुआ तो सियासतदां को। जिन्होंने पहाड़ के विकास की बातें, दावे और राजनीति कर विधायक, सांसद और मंत्री तक की कुर्सी हासिल की उन्होंने सबसे पहले मैदानी क्षेत्रों हल्द्वानी और ऊधम सिंह नगर में आशियाना बसाया। वे सिर्फ राजनीति के लिए ही पहाड़ जाते हैं। राज्य की कमान संभालने वाले नेता तक भी अधिकतर हल्द्वानी और देहरादून में ही रहते हैं।

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