गठबंधन की राजनीति
लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ गठबंधन को बहुमत मिलने के बाद बुधवार को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के वरिष्ठ नेताओं ने सरकार गठन के मुद्दे पर एक बैठक में मंथन किया।
बैठक में नरेंद्र मोदी राजग के नेता चुने गए। चुनाव परिणाम में राजग को बहुमत मिलने के साथ ही नरेंद्र मोदी के लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने का मार्ग भी प्रशस्त हो गया था। साथ ही ‘इंडिया’ गठबंधन की बैठक में सरकार गठन की संभावनाओं और आगे की रणनीति पर चर्चा की गई। अठारहवीं लोकसभा के लिए किसी भी एक दल को स्पष्ट जनादेश नहीं मिला है। चुनाव परिणाम ने संदेश दिया है कि गठबंधन की राजनीति खत्म नहीं हुई है।
भारतीय लोकतंत्र की जमीनी सच्चाई देश को गठबंधन की राजनीति की ओर ले जा रही है। यानि एक बार फिर देश में गठबंधन सरकार की वापसी हो रही है। गौरतलब है कि भारत में गठबंधन व्यवस्था राजनीतिक अस्थिरता का प्रमुख कारण रही है। परंतु गत वर्षों में भारत की राजनीति में जो नया मोड़ आया है उसमें गठबंधन की सरकार को नकारा भी नहीं जा सकता।
राष्ट्रीय स्तर पर सर्वप्रथम गठबंधन सरकार की शुरुआत 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार के गठन के साथ मानी जाती है। परंतु जनता पार्टी के घटक दल जनसाधारण के विकास एवं स्वयं के दलीय आधार को सुदृढ़ करने की अपेक्षा गठबंधन के भीतर अपने महत्व को लेकर अधिक संघर्षरत रहे, जिससे जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हो सकी। परिणामस्वरूप पार्टी और सत्ता दोनों की अकाल मृत्यु हो गई।
1979,1989, 1990 और 1991, 1996 व 1997 में गठबंधन की सरकार बनी जो कार्यकाल पूरा करने से पूर्व की गिर गईं। कहा जा सकता है कि क्षेत्रीय दलों की भरमार ने देश को राजनैतिक अस्थिरता के दौर में पहुंचा दिया था। 2014 और 2019 के चुनाव में भाजपा को अकेले ही बहुमत हासिल था और आसानी से दस साल तक सरकार चला पाई और अपने एजेंडे को लागू करती रही लेकिन अब गठबंधन की सरकार होगी।
चुनावी नतीजे इशारा तो कर रहे हैं कि तीसरी बार भाजपा को सरकार चलाने में उतनी सुविधा नहीं होगी। इसके चलते भाजपा को अपनी प्राथमिकताओं से भी समझौता करना पड़ सकता है, क्योंकि उसे अपने एजेंडे को लागू करने के लिए सहयोगी दलों पर निर्भर रहना होगा।
क्षेत्रीय दल स्थानीय मुद्दों को बहुत ही प्रमुख स्थान देते हैं और सरकार की गलत नीतियों एवं मनमानी पर रोक लगाते हैं। मिली-जुली सरकार की सफलता के लिए आवश्यक है कि राजनीतिक दल अहंवादी व्यक्तित्व और अनुशासनहीनता का त्याग कर सार्वजनिक नैतिकता के भाव को ग्रहण करें।
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