कानपुर की आन-बान और शान रहे तात्याटोपे को जयंती पर श्रद्धांजलि, अंग्रजों को नाकों चने चबाने पर किया था मजबूर
विशेष संवाददाता, अमृत विचार। कानपुर में आजादी की पहली जंग को धार देने वाले तात्याटोपे की जयंती के अवसर पर कानपुर इतिहास समिति ने बैठक करके उन्हें याद किया और श्रद्धांजलि दी। वक्ताओं ने कहा कि नानाराव पेशवा के नेतृत्व में उन्होंने सेनापति की भूमिका में फिरंगी हुकूमत के नाकों चने चबवा दिए थे। झांसी बचाने की लड़ाई के बाद वह ग्वालियर गए थे और वहां से कहां चले गए, इस बात को लेकर इतिहासकारों में विभिन्न मत हैं।
तात्याटोपे पर एक उल्लेख मिलता है कि वह ग्वालियर से निकलने के बाद पहले राजपूताना गए, फिर मालवा और थोड़े समय के लिए गुजरात में भी रहे। ग्वालियर से निकलने पर वे मथुरा गए और उसके बाद राजस्थान पहुंचे। वह यात्रा की दिशा बदलते रहे थे। निरालानगर में हुई बैठक में कानपुर इतिहास समिति के महामंत्री अनूप शुक्ला बताते हैं कि तात्या टोपे जब शिवपुरी के जंगल में थे, तब उनकी मुलाकात नरवर के राजा मानसिंह से हुई थी। मानसिंह ने अंग्रेजों से उनकी मुखबिरी कर दी।
इसके बाद 7 अप्रैल, 1869 को तात्या टोपे को शिवपुरी के सिपरी गांव लाया गया और दस दिनों के बाद ही 18 अप्रैल को उन्हें फांसी दे दी गई। कुछ अन्य इतिहासकारों का मानना है कि फांसी तात्याटोपे को नहीं, बड़ौदा के भाऊ तांबेकर को दी गई थी। बैठक में बिठूर में तात्याटोपे के परिवार के बाबत भी जानकारी दी गयी। उनके भाई के परिवार के नारायण राव टोपे का परिवार आज भी बिठूर में है। उनके परिजन पराग टोपे के अनुसार तात्याटोपे की मृत्यु युद्ध के दौरान हुई थी। कुछ लोग ये भी मानते हैं कि तात्या टोपे साधु की वेशभूषा में बिठूर, येवला और बड़ौदा में घूमते रहे। बैठक में विश्वंभर नाथ त्रिपाठी, डॉ शालिनी मिश्रा, डॉ जितेन्द्र सिंह, डॉ नीलम शुक्ला, हर्षित सिंह बैस, विनोद टंडन, शुभम त्रिपाठी, कुणाल सिंह, ओमेंद्र मिश्र आदि लोग उपस्थित रहे।
