असम में बाढ़ का एक और पहलू: महिलाओं को अकेला छोड़ दूसरे राज्यों में कमाने निकल जाते हैं पुरुष

Amrit Vichar Network
Published By Deepak Mishra
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धेमाजी। “क्या जब हम कभी वापस आएंगे, तो हमें हमारा घर अपनी जगह पर खड़ा मिलेगा? जमीन किस हालत में होगी?” लखीसखी बारा के कानों में हर रोज उसके पति के ये सवाल गूंजते रहते हैं। ऐसे सवाल, जिनका उसके पास कोई जवाब नहीं है। लखीसखी (52) का परिवार असम में 2023 में आई भीषण बाढ़ में बेघर हो गया था। 

इसके बाद परिवार के पुरुष सदस्य रोजी-रोटी कमाने के लिए चेन्नई चले गए, जबकि लखीसखी अपनी बहू के साथ पड़ोसी जिले धेमाजी आ गई। दोनों सास-बहू उन सैकड़ों महिलाओं में शामिल हैं, जिनके परिवार के पुरुष सदस्य जलवायु परिवर्तन के कारण आजीविका को पहुंचे नुकसान के मद्देनजर उन्हें घर पर अकेला छोड़ रोजी-रोटी कमाने के लिए दूसरे राज्यों में चले गए हैं।

लखीसखी ने एक न्यूज एजेंसी से कहा, “हम खेतों में काम करते थे, लेकिन (जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण) खेती पर अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे हैं। दिहाड़ी मजदूर का काम भी नियमित रूप से नहीं मिलता। घर चलाना मुश्किल हो गया था। नतीजतन, मेरे पति और हमारा बेटा दो साल पहले चेन्नई चले गए, जबकि मैं अपनी बहू के साथ धेमाजी आ गई। धेमाजी में हमारे परिवार की अन्य महिलाएं रहती हैं और हम जरूरत के समय में एक-दूसरे को सहारा दे सकते हैं।” 

उसने कहा, “मेरे पति जब भी फोन करते हैं, तो यही सवाल पूछते हैं कि क्या हमारी जमीन भविष्य में खेती के लिए सुरक्षित बचेगी। अगर यह पूरी तरह से बह गई, तो क्या होगा? यही हमारी एकमात्र संपत्ति है।” धेमाजी देश के 250 सर्वाधिक पिछड़ों जिलों में से एक है। यह बाढ़ के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। आधिकारिक अनुमान के मुताबिक, असम के 28 जिलों में 23 लाख से अधिक लोग बाढ़ से प्रभावित हुए हैं। ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बती पठार से निकलती है और अरुणाचल प्रदेश व असम में बहती हुई बंगाल की खाड़ी में मिलती है। यह नदी राज्य में अक्सर बाढ़ का कारण बनती है। 

लखीसखी के गांव के दौरे के दौरान एक न्यूज एजेंसी की संवाददाता को कामकाजी उम्र का कोई पुरुष बमुश्किल ही दिखाई दिया। वहां बचे हुए ज्यादातर पुरुष या तो बुजुर्ग थे या फिर बच्चे। रूपा बरुआ (32) चार साल और छह साल के अपने दो बच्चों के साथ ‘चांग घर’ (बांस से बने अस्थायी घर) में रहती है, जबकि प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बना उनका पक्का मकान वीरान पड़ा हुआ है। रूपा का पति बेंगलुरु की एक रबर फैक्टरी में काम करता है और वह पिछले दो साल से असम नहीं आया है।

रूपा ने एक न्यूज एजेंसी से कहा, “पक्का मकान गांव में दूर-दराज के स्थान पर है। अगर यह बाढ़ के पानी में डूब जाता है, तो मैं बच्चों के साथ अकेले बाहर नहीं निकल सकती। इसलिए मैं यहां अन्य महिलाओं के साथ एक ‘चांग घर’ में रहती हूं। अगर मेरे बच्चे बीमार पड़ते हैं, तो यहां मदद लेना आसान होता है।” 

उसने कहा, “मेरे पति पैसे भेजते हैं। वह पूछते हैं कि क्या हम कभी अपने घर में साथ रह पाएंगे। बच्चों को अपने पिता की याद आती है, लेकिन जब यहां आमदनी का कोई जरिया नहीं है, तो हम क्या कर सकते हैं? अगर हम भी पलायन कर गए, तो वहां रहना काफी महंगा पड़ेगा और हम अपना घर हमेशा के लिए गंवा सकते हैं।” 

कामकाजी उम्र का बोकुल केरल की एक फैक्टरी में हुए हादसे में अपना हाथ गंवाने के बाद चार महीने पहले धेमाजी लौट आया। अब वह परिवार की महिलाओं के साथ रहता है। बोकुल (26) ने कहा, “ज्यादातर पुरुष रोजी-रोटी कमाने के लिए गांव छोड़ दूसरे राज्यों का रुख कर चुके हैं। यहां रहने वाले अधिकतर पुरुष या तो बुजुर्ग हैं या मेरे जैसे दिव्यांग, जो कमाने के लिए बाहर नहीं जा सकते। मैं अपनी पत्नी और अपने भाई की पत्नी की मदद करता हूं, जो यहां अपने तीन साल के बेटे के साथ रहती है। कोई भी पलायन नहीं करना चाहता, लेकिन कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है।” 

पुरुषों के कमाई के लिए दूसरे राज्यों में चले जाने के कारण प्राकृतिक आपदा से प्रभावित घरों की मरम्मत या पुनर्निर्माण, लड़की इकट्ठी करने, मछली पकड़ने और बच्चों व मवेशियों की देखभाल का जिम्मा पूरी तरह से महिलाओं पर आ जाता है। कुछ महिलाएं घर खर्च के लिए सिलाई-बुनाई जैसे काम भी करती हैं। 

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