ध्वस्त मकान, जबरन नसबंदी : आपातकाल की वो भयावह तस्वीर, आज भी याद कर सिहर उठते हैं तुर्कमान गेट निवासी 

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Published By Anjali Singh
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दिल्ली। दिल्ली के तुर्कमान गेट इलाके में आपातकाल के पचास साल बाद भी लोगों के मन में उस भयावह दौर की यादें ताजा हैं, जब उनके मकान ढहा दिए गए थे, उनके परिवार रातोंरात सड़कों पर आ गए थे और जबरन नसबंदी अभियान चलाया गया था। पुरानी दिल्ली के कई परिवारों के लिए, 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल महज एक राजनीतिक घटना नहीं थी, बल्कि रोजमर्रा की जिंदगी में मिली असहनीय पीड़ा थी। यह एक आधिकारिक आदेश के बाद भय, अराजकता का दौर और सबकुछ खो देने का दुख था। मेहरूनिसा (74) आज भी उस दिन को याद करके सिहर उठती हैं, जब तोड़फोड़ करने वाला दस्ता उनके घर पहुंचा था। निशा ने बताया, ‘‘उन्होंने हमें पहले कोई चेतावनी नहीं दी।’’ 

उन्होंने बताया कि उनके पति ने रोकने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें पैर में गोली मार दी गयी। उन्होंने बताया, ‘‘मेरे शौहर अपनी आंखों के सामने घर टूटता हुआ देखकर वहीं बेहोश होकर गिर गए।’’ इसके बाद मेहरूनिसा और उनके बच्चों को नंदनगरी ले जाया गया। मेहरूनिसा ने कहा, ‘‘मुझे कोई अंदाजा नहीं था कि वह कैसे हैं, वह 15 महीने तक तुर्कमान गेट के पास एक मस्जिद में रहे थे, क्योंकि वह चल नहीं सकते थे और उनके पास रहने की कोई जगह नहीं थी। मैंने अपने बच्चों का पेट पालने के लिए अपने गहने तक बेच दिए।’’ 

उन्होंने कहा, "वहां न पानी था, न शौचालय, न ही घर। बस जंगल ही जंगल था। हम औरतें एक साथ रहती थीं। अगर शौच के लिए भी जाना होता, तो हम समूह में जाती थीं। हालात इतने असुरक्षित थे।" उनके पति अब्दुल हामिद (80 साल से अधिक) ने बताया कि कैसे अपने घरों को बचाने के लिए उनका प्रदर्शन खूनखराबे में बदल गया था। उन्होंने कहा, ‘‘हम अपने घरों को बचाने की कोशिश कर रहे थे और फिर पुलिस ने गोली चला दी। मुझे पैर में गोली लगी, स्थानीय लोग मुझे एक नजदीकी अस्पताल ले गए। जब तक मैं लौटा, तो मेरा परिवार वहां से जा चुका था।’’ 

तुर्कमान गेट की यह दुखद दास्तां केवल आशियानों के गिराए जाने तक सीमित नहीं थी। स्थानीय लोगों के अनुसार, आबादी नियंत्रण की आड़ में संजय गांधी के नेतृत्व में वहां पर नसबंदी अभियान भी चलाया गया। रजिया बेगम (75) ने बताया कि वह उस समय 15 साल की थी और युवा कांग्रेस का हिस्सा थीं। उन्होंने कहा, ‘‘जब संजय गांधी जामा मस्जिद आए, तो मैंने उन्हें वहां का भ्रमण कराया। उन्होंने भीड़ को देखते हुए कहा कि यह क्षेत्र बहुत घनी आबादी वाला है और नसबंदी शिविरों की आवश्यकता है।’’ 

इसके बाद जल्द ही दुजाना हाउस के पास नसबंदी शिविर लगाए गए। रजिया उस वक्त नसबंदी का असल मतलब भी नहीं जानती थीं और वह घर-घर जाकर लोगों को इसके लिए मनाने लगी। उन्होंने कहा, ‘‘हमें छोटे परिवारों के बारे में बात करने को कहा गया कि लोगों को केवल दो या तीन बच्चे ही पैदा करने चाहिए, अन्यथा उन्हें जीवनयापन के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।’’ उन्होने कहा, ‘‘लेकिन लोग सुनना नहीं चाहते थे। उन्होंने पुरुषों का अपमान किया और मुझे वहां से चले जाने को कहा।’’ 

रजिया ने बताया कि नसबंदी कराने के बदले में लोगों को घी के डिब्बे, रेडियो और 250 रुपये दिए जाते थे। लेकिन जब बुलडोजर ने रजिया के दरवाजे पर दस्तक दी तो हालात तेजी से बदल गए। रजिया ने कहा, ‘‘जब बुलडोजर तुर्कमान गेट पर आए, तो मैं भी प्रदर्शनों में शामिल हो गयी। मैं अपने इलाके की अन्य महिलाओं के साथ खड़ी थी। मुझे भी चोटें आयीं।’’ शाहिद गंगोई उस समय कॉलेज के प्रथम वर्ष के छात्र थे, जब उन्होंने ऐसी खबर सुनी, जिसने उनकी जिंदगी बदल दी। 

उन्होंने बताया, ‘‘हम कक्षा में थे, जब प्राचार्य ने हमें बुलाया। उन्होंने बताया कि हमारे घर तोड़े जा रहे हैं। मैं जल्दी से वापस आया, लेकिन हमारा घर पहले ही तोड़ा जा चुका था। मेरे पिता को नमाज पढ़ते समय गिरफ़्तार कर लिया गया था।’’ तुर्कमान गेट की सड़कें टूटे हुए कांच और आंसू गैस से भरी हुई थीं। गंगोई ने कहा, ‘‘हमारी आंखें जल रही थीं, हमें पुलिस ने पकड़ कर ट्रकों में भर दिया और नंदनगरी भेज दिया। उस जगह पर तब कुछ भी नहीं था, न सड़कें, न पानी, न रहने की जगह।’’ 

राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आंतरिक और बाह्य खतरों का हवाला देते हुए घोषित आपातकाल 21 महीने तक जारी रहा था। उस दौरान नागरिक अधिकार छीन लिए गए थे, प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई थी और सरकारी आदेशों के तहत सामूहिक गिरफ्तारियां और जबरन नसबंदी की गई थी। इंदिरा गांधी द्वारा 1977 में आम चुनाव की घोषणा और जेल में बंद कई नेताओं को रिहा करने के बाद आधिकारिक तौर पर आपातकाल समाप्त हुआ था। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी नीत विपक्षी दलों के गठबंधन ने चुनाव में जीत हासिल की और देसाई भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने।

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