इलाहाबाद हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला : नाबालिग की संरक्षता में बदलाव की आवश्यकता

प्रयागराज, अमृत विचार : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नाबालिग लड़की की कस्टडी उसकी मां को दिए जाने के मामले में कहा कि हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 6 के तहत पैतृक संरक्षकता का सिद्धांत 21वीं सदी के भारत की प्रगतिशील सोच के आधार पर अप्रचलित हो गया है।
संरक्षकता और वार्ड अधिनियम, 1890 एक औपनिवेशिक युग का कानून है, जो भारत में नाबालिगों की सुरक्षा और संरक्षकता को नियंत्रित करता है, लेकिन इसे ऐसे समय में तैयार किया गया था, जब पितृसत्तात्मक मानदंडों ने सामाजिक और कानूनी सोच को प्रभावित कर रखा था। उक्त सिद्धांत की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर की एकल पीठ ने कहा कि यह सिद्धांत कि पिता नाबालिग बच्चे या अविवाहित लड़की का प्राकृतिक संरक्षक है और उसके बाद माँ, मुख्य रूप से यह अवधारणा हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 6 से ली गई है, लेकिन वर्तमान समय की प्रगतिशील विचारधारा के अनुसार यह सिद्धांत और अप्रसांगिक हो गया है।
कोर्ट ने माना कि सच्ची प्रगति की मांग है कि विधायिका इन उभरते मानदंडों को संहिताबद्ध करे, जिससे पूरे देश में एक सुसंगत और लिंग-तटस्थ दृष्टिकोण सुनिश्चित हो सके। कोर्ट ने वर्तमान मामले के तथ्यों पर विचार करते हुए स्वीकार किया कि नाबालिग बच्ची की कस्टडी को प्राप्त करने के लिए पति ने पहले उसे माँ की देखभाल से दूर करने के लिए एक मनगढ़ंत कहानी रची। इसके बाद धोखे से अपनी पत्नी का विश्वास जीतकर उसने उसे निजी फ्लैट खरीदने के बहाने सरकारी आवास खाली करने के लिए मजबूर किया। इस योजना के माध्यम से उसने प्रभावी रूप से पत्नी को बच्ची की संगति से अलग कर दिया और लगभग दो वर्षों तक बच्ची की कस्टडी अपने पास रखी।
बच्ची के हितों की रक्षा के लिए उसकी एकमात्र अभिरक्षा उसकी मां को दी जा सकती है और प्राकृतिक पिता को उससे मिलने का अधिकार दिया जा सकता है। कोर्ट ने बच्ची की उम्र पर विचार करते हुए स्पष्ट किया कि किशोरावस्था के दौरान बच्ची को उसकी मां से अलग करने से भावनात्मक अलगाव, उपेक्षा की भावना और यहां तक कि दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं। अंत में कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि नाबालिग बच्ची की कस्टडी के मामले में मां का अद्वितीय स्थान है।
किशोरावस्था में एक लड़की को लिंग आधारित विशिष्ट आवश्यकताओं के कारण विकास के विभिन्न चरणों में पिता की अपेक्षा मां की आवश्यकता अधिक होती है, इसलिए कोर्ट ने विपक्षी/पति को तीन दिनों के भीतर नाबालिग की कस्टडी याची को सौंपने के निर्देश दिए और आदेश का अनुपालन न होने की स्थिति में याची को लखनऊ के बाल कल्याण समिति के अध्यक्ष से संपर्क करने की स्वतंत्रता दी, जिससे महिला पुलिस अधिकारी और बाल परामर्शदाता की सहायता से उचित कदम उठाया जा सके। इसके साथ ही कोर्ट ने विपक्षी द्वारा उक्त आदेश का पालन सुनिश्चित करने के लिए पुलिस आयुक्त, लखनऊ को भी निर्देश दिया।
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