कुमाऊं और गढ़वाल को एक सूत्र में बांधतीं मां नंदा देवी, पुराणों में मिलती है हिमालय की पुत्री नंदा के प्रसंग

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Published By Anjali Singh
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उत्तराखंड को यदि उत्सवों, पर्वों और अनूठी सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आजकल कुमाऊं और गढ़वाल के विभिन्न क्षेत्रों में नंदा देवी महोत्सव की धूम मची हुई है। यह महोत्सव केवल कुछ दिनों के मेले या मौज मस्ती का प्रतीक नहीं है, बल्कि  यहां के जनमानस पर इस महोत्सव का सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक प्रभाव भी देखने को मिलता है।

उत्तराखंड में नंदा देवी सर्वत्र पूजनीय हैं, जो पूरे राज्य को एक सूत्र में बांधती हैं। आजकल पूरा उत्तराखंड नंदामय है। पुराणों में हिमालय की पुत्री को नंदा बताया गया है, जिनका विवाह शिव से होता है। हिमालय वैदिक काल से हेमवत नाम से भी जाना जाता है। हेमवती अर्थात हिमालय की पुत्री नंदा के कई प्रसंग पुराणों में हैं, इसलिए देवी का एक नाम हेमवती भी है। देवी भागवत मैं नंदा को शैलपुत्री के रूप में नवदुर्गा में से एक बताया गया है, जबकि भविष्य पुराण में नंदा को सीधे तौर पर एक दुर्गा बताया गया है।

कुमाऊं में एक ओर नंदा देवी अन्नपूर्णा के रूप में जानी जाती है, वहीं दूसरी ओर हिमालयवासिनी होने के नाते युद्ध की देवी के रूप में भी पूजा की जाती है। यह बताना कठिन है कि उत्तराखंड में नंदा देवी का पूजन कब से शुरू हुआ है, लेकिन कुमाऊं में नंदा की पूजा का व्यापक प्रचलन चंद शासकों के काल में हुआ। वे नंदा को अपनी कुलदेवी मानते थे। 1670 ई. में चंद राजा बहादुर चंद बधानगढ़ के किले से नंदा देवी की स्वर्ण प्रतिमा को अल्मोड़ा लाए और उसे अपने मल्ला महल परिसर में प्रतिष्ठित किया। बाद में 1815 में अंग्रेजों ने नंदा देवी की प्रतिमा को मल्ला महल से वर्तमान नंदा देवी परिसर में स्थापित किया।

 अल्मोड़ा में आज जहां नंदा देवी मंदिर है, वहां 1690 में तत्कालीन राजा उघोत चंद ने दो शिव मंदिर उघोत चंदेश्वर तथा पार्वतीश्वर बनवाए। 1699 में राजा ज्ञानचंद भी बधानकोट से एक स्वर्ण प्रतिमा अल्मोड़ा लाए। 1760 ई. में राजा दीपचंद ने पार्वतीश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया और यह मंदिर दीप चंद्रेश्वर कहलाया, लेकिन आज यह दोनों मंदिर अपने पुराने उघोत चंदेश्वर तथा पार्वतीश्वर नाम से ही जाने जाते हैं।

अंग्रेजी शासन काल में इन मंदिरों से जुड़ी एक घटना काफी लोकप्रिय है। 1815 में तत्कालीन कुमाऊं कमिश्नर ट्रेल ने मल्ला महल में स्थापित नंदा देवी की मूर्ति को वहां से हटाकर उघोत चंदेश्वर मंदिर में रखवा दिया। इसके कुछ दिनों जब कमिश्नर ट्रेल हिमालय में नंदा देवी की चोटी और एक यात्रा पर गए थे तो अचानक उनकी आंखों की रोशनी कम हो गई और उन्हें दिखाई देना बंद हो गया। कई चिकित्सकों को दिखाया पर कोई लाभ नहीं हुआ। कुछ लोगों की सलाह पर अल्मोड़ा लौटकर मां नंदा से क्षमायाचना की और मां नंदा का एक मंदिर बनवाया। उसके बाद उनकी आंखों ज्योति वापस लौट आई। 

चंद शासकों से पहले कत्यूरी शासक भी नंदा देवी को अपनी आराध्य देवी मानते थे। कत्यूरी शासकों के अधिकांश लेखों में मां नंदा देवी की स्तुति मिलती है। अल्मोड़ा में नंदा देवी की पूजा तांत्रिक विधि से की जाती है। चंद राजा तंत्र विद्या में पारंगत माने जाते थे। राजा आनंद सिंह तंत्र विद्या में विशेष ज्ञान रखते थे। उनकी मृत्यु के बाद तंत्रशास्त्र की पुस्तक ‘चीनाचार’ में से कुछ अंश उतार कर पूजा की जाती है। नंदा देवी को तारा शक्ति के रूप में पूजा जाता है और यह पूजा तंत्रिका विधि से की जाती है, जिसे ‘आगमोक्त’ विधि कहते हैं।

नैनीताल के मल्लीताल में भी झील से लगा एक नंदा देवी का मंदिर है। पहले यह मंदिर उस स्थान पर था, जहां आज वोट हाउस क्लब है, लेकिन 1880 में आए विनाशकारी भूस्खलन से पूरा मंदिर झील में समा गया था। बाद में मोतीराम साह ने नया मंदिर बनवाया और उनके प्रयासों से ही 1903 में यहां नंदा देवी महोत्सव का प्रारंभ हुआ। उनकी मृत्यु पश्चात उनके पुत्र उदय साह ने इस कार्य को आगे बढ़ाया। 1925 तक मोतीराम साह के परिवार वाले मेले का आयोजन करते रहे। 1926 से रामसेवक सभा ने मेले के आयोजन की बागडोर अपने हाथ में ले ली।

पंचमी से शुरू हो जाती है महोत्सव की तैयारी  

नैनीताल में नंदा देवी महोत्सव की तैयारी भाद्रपद की पंचमी से प्रारंभ हो जाती है। षष्ठी के दिन निकटवर्ती गांव से एक जुलूस और मंत्रोचार के साथ ढोल नगाड़े बजाते हुए कदली (केले ) के वृक्षों को लाया जाता है। इन वृक्षों को नगर की परिक्रमा के बाद मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है। सप्तमी के दिन मूर्ति निर्माण का कार्य प्रारंभ होता है। अष्टमी के दिन सुंदर वस्त्रों और आभूषणों से सुसज्जित मूर्ति को ब्रह्म मुहूर्त में मंदिर में स्थापित किया जाता है। नवमी के दिन कन्याकुमारी का भोग लगाया जाता है। दसवीं के दिन देवी का डोला नगर भ्रमण के लिए निकाला जाता है। सूर्यास्त के बाद देवी की मूर्ति को पाषाण देवी मंदिर के समीप नैनी झील में विसर्जित कर दिया जाता है। यह महोत्सव हमें मां नंदा के प्रति अटूट आस्था, विश्वास और भक्ति से सराबोर करता है।