संस्कार : आध्यात्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यबोध
‘संस्कार’ मात्र धार्मिक कर्मकांड ही नहीं अपितु मानव जीवन के सर्वांगीण विकास का आधार है। यह मानव जीवन के सामाजिक, धार्मिक, नैतिक एवं शैक्षिक मूल्यों को एक दिशा प्रदान करता है, जिसके आधार पर व्यक्ति दैहिक एवं भौतिक विकास के साथ ही सुव्यवस्थित एवं सुसंस्कृत जीवनयापन करता है। संस्कारों का विधान अलौकिक पृष्ठभूमि में किया गया है तथा इनकी उत्पत्ति में मानवीय प्रवृत्तियों का विशेष येगदान माना गया है, जिनका आधार आध्यात्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यबोध है।-रज्जन कुमार, सेवानिवृत्त प्रोफेसर
संस्कार अपनी प्रकृति के अनुसार पूर्वभव, वर्तमान जीवन एवं मृत्यु के पश्चात् भी गतिशील रहते हैं। संस्कृत साहित्य में मानव जीवन के इन विविध क्रमों से संबंधित संस्कार के कई प्रकार मिल जाते हैं। यद्यपि संस्कारों के भेद एवं उनके नामों के लेकर विद्वानों मे मतैक्य नहीं है फिर भी इस दिशा में एक रुपता लाने के प्रयास विद्वानों द्वारा समय-समय पर अवश्य हुए हैं। विद्वानों का इस दिशा में किया गया यह प्रयास ही संस्कारों को सुनियोजित एवं व्यावहारिक मूल्य प्रदान कर सका है। वर्तमान में मुख्य संस्कारों की संख्या कुछ नाम भेद के साथ 16 बताई गई हैं, जैसे-गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, चूड़ाकरण, अन्नप्राशन, कर्णवेध, विद्यारम्भ, उपनयन, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह एवं अन्त्येष्टि-श्राद्ध। इन षोडश संस्कारों में कुछ संस्कार आज भी भारतीय जनमानस में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए हैं। जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, कर्णवेध, उपनयन, विवाह एवं अंत्येष्टि-श्राद्ध आदि संस्कारों में से उपनयन एवं विवाह संस्कार का सामाजिक जीवन के लिए तो महत्व अधिक है, परंतु इसके पीछे धार्मिक एवं आध्यात्मिक मूल्य का अभाव दृष्टिगोचर होता है। मृत्यु अथवा अन्त्येष्टि संबंधी संस्कार के पीछे धार्मिक एवं आध्यात्मिक मूल्य की प्रधानता होती है। अतः यह कहा जा सकता है कि संस्कार संबंधी क्रियाओं को स्वीकार करने के पीछे भारतीय जनमानस में धार्मिक संचेतना के साथ-साथ आध्यात्मिक एवं सामाजिक मूल्य की पृष्ठ भूमि भी गतिमान रही है। अतः हमें यह स्वीकार करने में कोई संशय नहीं रह जाता है कि आज भी संस्कार पहले की भांति धार्मिक एवं सामाजिक धरातल पर अपना अस्तित्व बनाए हुए है।
व्यक्ति के जीवन की संपूर्ण शुभ तथा अशुभवृत्ति उसके संस्कारों के अधीन है। इनमें से कुछ संस्कार तो जातक अपने पूर्वभव के साथ लाता है तथा कुछ को वर्तमान जीवन की परिस्थितियों के वशीभूत होकर प्राप्त करता है एवं कुछ संस्कार उसकी मृत्यु के बाद भी कार्यरत रहते हैं। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि संस्कार पूर्वभव, वर्तमान जीवन एवं मृत्यु के पश्चात् भी गतिशील रहते हैं, जिनका मानव जीवन में अपना महत्व एवं मूल्य बना हुआ है।
भारतीय संस्कृति में तीन प्रकार के शरीरों का वर्णन हुआ है-सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर एवं कारण या लिंग शरीर। इनमें स्थूल शरीर के द्वारा कृत कार्यों का समापन मृत्यु के उपरांत सूक्ष्म शरीर के द्वारा भी किया जाता है। तात्पर्य यह है कि सूक्ष्म शरीर प्राप्त होने पर भी स्थूल शरीर द्वारा कृतकर्म क्षय को प्राप्त नहीं होते तथा पुनः जन्म लेने के बाद सूक्ष्म शरीरस्थ संस्कारों को व्यक्ति अपने क्रिया क्षेत्र में लाता है। क्योंकि प्रकृति के सूक्ष्म तत्वों से सभी प्रकार के शरीर बनते हैं, जो स्वरूपतः भौतिक हैं। अतः भौतिक पदार्थों से निर्मित शरीर को भैतिक सुखों की आवश्यकता होती है। सूक्ष्म शरीर द्वारा किए गए कार्यों का संबंध स्थूल शरीर से होता है, जो हमारे मस्तिष्क में तथा स्थूल शरीर में व्याप्त हो जाते हैं, जो कि अन्य जन्मांतरों में साथ-साथ होने के कारण स्थूलशरीर द्वारा भोगे जाते हैं।
सूक्ष्मशरीर की सत्ता का प्रमाण शास्त्रों में बहुधा प्राप्त होता है तथा बिना स्थूलशरीर के हम सब कुछ जान लेते हैं। उदाहरण स्वरूप जैसे नासिका के सामने कोई पुष्प लाया जाए तथा घ्राणेन्द्रिय का निरोध करके कान से यदि हम सूंघने का प्रयास करते हैं, तो कान रूपी इंद्रिय उस पुष्प की सुगंध को ग्रहण नहीं कर सकती। योगी लोग सूक्ष्म शरीर के स्थूल शरीर से पृथक कर सकते हैं तथा पुनः नए शरीर में भी प्रवेश कर सकते हैं। इस प्रकार वह स्वभावतः संस्कारों के भी बदल देते हैं।
संस्कृत साहित्य में संस्कारों से संबद्ध परंपराओं एवं मान्यताओं का यथा स्थान विवेचन हुआ है, जिनसे यह संकेत मिलता है कि इस संसार में लौकिक एवं अलौकिक शक्तियां हैं, जिनके मध्य अटूट संबंध है, जो मानव जीवन को एक प्रेरणा प्रदान करता हैं। संस्कार यहां एक प्रेरकतत्व के रूप में विकसित हुआ है, जो मनुष्य को कई प्रकार की लौकिक एवं अलौकिक शक्तियों से युक्तकर उसके जीवन में सुख-शांति का आधान करता है। संस्कार जीवन के विभिन्न अवसरों पर संपन्न एवं आयोजित किए जाते हैं। तद्नुसार ये अवसर एवं जीवन को महत्व एवं पवित्रता प्रदान करते हैं। संस्कार कदाचित् जीवन की घटनाओं के प्रति मनुष्य के भीतर व्याप्त उदासीनता को कम करने की प्रेरणा प्रदानकर जीवन के विकास के क्रम को महत्व प्रदान करउसे एक सामाजिक मूल्य प्रदान करते हैं। मनुष्य को इस बात का बोध हो जाता है कि जीवन की घटनाएं मात्र शारीरिक क्रियाओं का नाम नहीं अपितु एक चिरंतन प्रवाह है, जिनमें सामाजिक संचेतना है, आध्यात्मिक उत्क्रांति है तथा सांस्कृतिक मूल्य के संरक्षण का भाव है।
