आपबीती : सेवड़ा किले की वो शाम
अपर कलेक्टर दतिया के पद पर रहते हुए एक दिन सेवड़ा जाना हुआ। सेवड़ा किले में पहुंचते- पहुंचते शाम ढलने लगी थी। इस किले को पहले कभी देखने जानने का अवसर नहीं मिला था। सनकुंआ जल प्रपात की धुंधली यादें स्मृति पटल पर जरूर ताजी थी। सेवड़ा किले को पहले नहीं देखा था। इस किले को देखने की इच्छा आज पूरी हुई। सेवड़ा नगर विंध्यांचल पर्वत श्रेणियों के अंतिम छोर पर सिंध नदी के तट पर स्थित है। कहते हैं कि सन् 1018 ई. में महमूद गजनवी चंदाराय का पीछा करते हुए यहां आ पहुंचा और यहां पर आधिपत्य कर लिया। इसे सरुआ का किला कहा जाता था।- रूपेश उपाध्याय, अपर कलेक्टर
सेवड़ा किले की बुनियाद दतिया के राजा दलपत राय के द्वितीय पुत्र पृथ्वी सिंह ने डाली और इसका नाम किन्नर गढ़ रखा। सेवड़ा उन्हें जागीर में प्राप्त हुआ था। पृथ्वी सिंह का राजकाल सेवड़ा किले में विभिन्न निर्माण, साहित्य और सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से स्वर्णिम काल माना जाता है। इस दौरान किले में नंद नंदन जू का मंदिर, रसनिधि की राउर, दरबार हॉल, रानी महल, फूल बाग आदि का निर्माण हुआ। उनकी कृति रतन हजारा बुंदेली साहित्य की अमूल्य धरोहर है। उनके समय संत अक्षर अनन्य द्वारा अनेक ग्रंथ सेवड़ा में रहकर ही लिखे गए। सन् 1758 ई. में पृथ्वी सिंह की मृत्युपरांत उनके ज्येष्ठ पुत्र नारायण सिंह जू देव सेवड़ा के शासक बने पर उन्हें सिकदार की हवेली में जहर देकर मार डाला गया। उनके छोटे पुत्र विजय बहादुर दतिया के राजा इंद्रजीत सिंह द्वारा किए गए हमले में मारे गए। इंद्रजीत सिंह सेवड़ा किले में लूटपाट की, पृथ्वी सिंह रसनिधि द्वारा स्थापित पुस्तकालय को जलवा दिया। किले को तहस-नहस कर दिया गया। इंद्रजीत के आक्रमण और सेवड़ा विजय से सेवड़ा की स्वतंत्र रियासत का अस्तित्व ही समाप्त हो गया। सेवड़ा को फिर दतिया रियासत के अधीन कर लिया।
इंद्रजीत सिंह के बाद शत्रुजीत सिंह सन् 1762 ई. में दतिया रियासत के शासक बने। उनके शासन काल मे महादजी सिंधिया की वेवा रानियों को लकवा दादा के संरक्षण में सेवड़ा किले में आश्रय प्रदान कर दिया था, जिससे कुपित होकर ग्वालियर के राजा दौलत राव सिंधिया द्वारा सेवड़ा पर आक्रमण कर दिया। यह युद्ध सेवड़ा किले की दीवारों के नीचे लड़ा गया। सिंधिया के फ्रांसीसी सेनापति पैरों इस युद्ध में मारा गया। सन् 1801 ई. में इसी युद्ध मे घायल होकर शत्रुजीत की भी मृत्यु हो गई। सनकादि ऋ षियों की तपोभूमि होने के कारण यहां सिंध नदी में स्थित कुंड सनकुआ नाम से प्रसिद्ध है, जहां कार्तिक पूर्णिमा और मकर संक्रांति को विशाल मेला लगता है।
हम सेवड़ा के अतीत से वर्तमान लौट आए। हम किले की ओर बढ़ रहे थे। खंडहर होती प्राचीर के बाद किले के बुलंद दरवाजे ने हमारा स्वागत किया। इस दरवाजे में लगे कीले अब भी अतीत के प्राचीन गौरव को याद दिला रहे थे। दरकती दीवालों के बीच से होते हुए हम किले के मुख्य भाग में पहुंचे जहां अब भी राजपरिवार निवास करता है। किले से सिंध नदी और दूर-दूर तक फैली विंध्य पर्वत श्रृंखलाएं बड़ी ही मनोरम लग रही थी।
सिंध नदी का अविरल प्रवाह टूटे पुल को पार कर सनतकूप में प्रपात बनकर गिर रहा था। इससे उठ रही लहरे किनारे पर जाकर टूट जाती और फिर इसी पानी में विलीन होती दिख रही थीं। दूर पहाड़ों पर सूर्य की लालिमा फैल गई थी। अब सूर्य अस्त होने को आतुर था। हम महल की छत से उतरकर ड्राइंग रूम में आ गए, जहां सेवड़ा की रानी उमा कुमारी हमारा इंतजार कर रही थी। उनसे भेंट के दौरान किले के अतीत, वर्तमान और भविष्य को लेकर व्यापक चर्चा हुई। उनकी सहजता और सौजन्य से हम अभिभूत थे। रात्रि होने को थी। किले से प्रस्थान का समय हो गया था। सबसे भेंट और अभिवादन पश्चात हम दतिया के लिए रवाना हो गए। सेवड़ा किले की यह शाम बहुत ही खुशगवार रहीं।
