इंसाफ़ पसंद बादशाह जहाँगीर

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अदले जहाँगीरी (जहाँगीर के शासनकाल में) आगरे के लाल किले में एक सोने की ज़ंजीर लगी थी जिसका एक सिरा लाल किले में एक घंटे से जुड़ा था और उसका दूसरा सिरा यमुना नदी पार कर के दूसरी तरफ़ था। कोई भी फ़रयादी इंसाफ़ मांगने के लिए जब यमुना नदी के दूसरे किनारे पर लगी …

अदले जहाँगीरी (जहाँगीर के शासनकाल में) आगरे के लाल किले में एक सोने की ज़ंजीर लगी थी जिसका एक सिरा लाल किले में एक घंटे से जुड़ा था और उसका दूसरा सिरा यमुना नदी पार कर के दूसरी तरफ़ था। कोई भी फ़रयादी इंसाफ़ मांगने के लिए जब यमुना नदी के दूसरे किनारे पर लगी इस ज़ंजीर को खींचता था तो लाल किले में घंटा बजने लगता था। किसी भी वक़्त – सुबह, दोपहर, शाम या फिर रात को, घंटे की गूँज सुनते ही बादशाह जहाँगीर फ़रयादी को इंसाफ़ दिलाने के लिए दौड़ पड़ते थे।

हम सबने वह कहानी सुनी है जिसमें कि बेगम नूरजहाँ के द्वारा अनजाने में शेर समझ कर एक धोबी को अपने तीर का निशाना बना लेती है और उस धोबी की बेवा इंसाफ़ मांगने के लिए उस ज़ंजीर को खींचती है। बादशाह जहाँगीर को जब नूरजहाँ का जुर्म पता चलता है तो वो उस फ़रयादी धोबन से कहते हैं -‘बेगम नूरजहाँ ने तेरे शौहर को तीर चला कर मारा है, अब तू बेखटके उसके शौहर पर तीर चला कर उसे मार दे।’

बाद में क्या हुआ, सबको पता है. धोबन की बेवा ने थैली भर के सोने की मोहरों के बदले में बेगम नूरजहाँ को माफ़ कर दिया और बादशाह जहाँगीर अपनी इंसाफ़पसंदी का डंका बजवा कर, अपनी प्रजा का खून पीने के लिए ज़िन्दा बच गए। सोहराब मोदी ने इस कहानी पर फ़िल्म ‘पुकार’ बनाई थी। इस फ़िल्म को देख कर तो हम बादशाह जहाँगीर को न्यायप्रिय राजा विक्रमादित्य से भी इक्कीस ही ठहराएंगे।

इंसाफ़ पसंद बादशाह के रूप में प्रसिद्द जहाँगीर, असल में निहायत ही ज़ालिम और नाकारा बादशाह थे। अपने बाप के ज़िन्दा रहते उन्होंने हमेशा उनकी नाक में दम किया। कितनी बार शहज़ादे ने बादशाह की हुकुम-उदूली की और कितनी बार उनके खिलाफ़ बगावत की, इसका हिसाब लगाना तक मुश्किल है। बादशाह अकबर के नवरत्न और उनके अज़ीज़ अबुल फ़ज़ल को शहज़ादे सलीम ने बीर सिंह बुंदेला के ज़रिए बड़ी बेरहमी से उसकी अंतड़ियाँ निकलवा कर मरवा दिया था।

झांसी ग्वालियर के बीच में एक ‘अंतड़ी’ नाम का गाँव है। इस गाँव का ऐसा विचित्र नामकरण इसलिए हुआ था क्योंकि इसी स्थान पर पेट से अंतड़ियाँ बाहर निकाल कर अबुल फ़ज़ल की हत्या की गयी थी। 1605 में बादशाह बनते ही जहाँगीर ने अपने बागी बड़े बेटे ख़ुसरो को क़ैद कर के उसे अँधा करवा दिया था। शेर अफ़गन की बीबी मेहरुन्निसा बेगम से शहज़ादे सलीम के पहले से ताल्लुकात थे। बादशाह बनने के बाद अपने इश्क़ में पड़े रोड़े शेर अफ़गन को बादशाह ने मरवा दिया। कई साल अपने हरम में मेहरुन्निसा को रखने के बाद बादशाह ने उस से निकाह कर लिया।

मेहरुन्निसा पहले ‘नूरमहल’ हुईं फिर ‘नूरजहाँ’ हो गईं। बादशाह जहाँगीर अफ़ीमची थे और शराब पीने में तो उनकी सल्तनत में उनके जोड़ का कोई था ही नहीं। वो जाम से नहीं, बल्कि सुराही से शराब पिया करते थे. शराब पी कर वो इतने धुत्त हो जाया करते थे कि रात का खाना उन्हें उनके मुंह में ठूंस-ठूंस कर खिलाया जाता था और उनके दो ख़ादिम उनके जबड़े पकड़ कर उनको भैंस के जैसी जुगाली कराया करते थे।

बादशाह ने अपनी सल्तनत का सारा काम नूरजहाँ के सुपुर्द कर दिया। बेगम नूरजहाँ ने दरबारी षड्यंत्रों के नए मापदंड स्थापित किए।
बादशाह के राज में ‘मोटी पेशकश’ और भारी ‘नज़राने’ के बिना तो कोई पत्ता हिल भी नहीं सकता था। इधर हमारे बादशाह थे कि शराब, क़बाब और नूरजहाँ के साथ के अलावा उन्हें किसी की भी फ़िक्र नहीं थी।मगर ऐसे शराबी बादशाह को अपनी रियाया (प्रजा) के, ख़ास कर कि अपने अमीरों, मनसबदारों, सिपहसालारों के, शराब पीने पर सख्त ऐतराज़ था। बादशाह का यह मानना था कि मयनोशी आदमी को नाकारा बना देती है।

बादशाह जहाँगीर ने एक फ़रमान जारी करवाया -‘आज से हमारी सल्तनत में कोई शराब नहीं पिएगा, सिर्फ़ हम पियेंगे।’
तथाकथित इंसाफ़पसंद बादशाह ने आत्मकथा – ‘तुज़ुक-ए-जहाँगीरी’ में लिखा है कि शिकार के लिए हांका करते वक़्त दो हरकारों की गलती की वजह से उनके निशाना साधने से पहले ही शेर भाग गया था। गुस्से में आए इंसाफ़पसंद बादशाह ने फ़ौरन उन हरकारों को मौत के घाट उतरवा दिया।

बादशाह जहाँगीर ने सिखों के गुरु अर्जुन देव को यातना दे-दे कर, प्यासा मरवा दिया। बादशाह जहाँगीर ने जैन मुनियों के साथ भी बहुत बुरा सुलूक किया था। कई सूफ़ी संतों के साथ भी बादशाह ने अमानुषिक व्यवहार किया था। महाबत खान ने नूरजहाँ की साज़िशों से तंग आ कर बादशाह को क़ैद कर लिया था और उन्हें मुक्त करने से पहले उसने उन्हें यह सीख दी थी कि वो इस खुराफ़ाती खातून के इशारे पर चलने से बाज़ आएं। इन तथ्यों की हमको जानकारी है लेकिन फिर भी हम बादशाह जहाँगीर को इंसाफ़पसंद बादशाह कहते हैं और उनकी गणना महान मुग़ल बादशाहों में करते हैं।

वास्तव में ‘अच्छा बादशाह’, ‘बुरा बादशाह’ ‘न्याय-प्रिय शासक’ , अन्यायी शासक’, यह सब तत्कालीन मीडिया का किया-धरा होता है।
आज भी बादशाहों की, वज़ीरों की, शान में जो क़सीदे पढ़े जाते हैं उनमें सच्चाई का नामो-निशान नहीं होता लेकिन जिसका सिक्का चलता है, उसके द्वारा जारी किये गए खोटे सिक्के भी बाज़ार में चलते हैं।

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