गोंडा: अयोध्या में राम के आगमन से तृप्त होंगी गोनर्द की तपोस्थलियां

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Published By Sachin Sharma
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1856 के पहले अयोध्या का ही भू भाग रहा गोनर्द (गोंडा)

अरुण कुमार मिश्र, गोंडा। देश ही नहीं पूरा विश्व राममय होने जा रहा है। भगवान राम 22 जनवरी को अयोध्या में जैसे ही प्राण प्रतिष्ठित होंगे तो अयोध्या के पश्चिम भगवान राम की गोचारण भूमि गोनर्द की धरती भी पुण्य में नहा जाएगी। सरयू के उस पार अयोध्या और इस पार गोचारण भूमि जिस पर महान संतों ने अयोध्या के कल्याण के लिए हजारों वर्षों तक तप कर जिस भूमि को तपोस्थली बनाई वे जीवंत हो उठेंगी।

गोंडा किसी प्राचीन सत्ता का केंद्र नहीं था। यह किसी प्रतिष्ठित सत्ता के अधीन एक क्षेत्र था और सांस्कृतिक वैभव को धारण किए था। पुराणों के अनुसार लगभग 6977 ईसा पूर्व से 6937 ईसा पूर्व तक भारत के विंध्योत्तर भाग में सम्राट मनु की शासन व्यवस्था मानी जाती थी। गोंडा वर्तमान क्षेत्र मनु के दस पुत्रों में ज्येष्ठ इच्छावकु के स्थाई कोशल राज के अंतर्गत था। इस कोशल राज का विस्तार परवर्ती अवधक्षेत्र हुआ।

वर्तमान गोंडा क्षेत्र जिस कोशल राज्य के अंतर्गत था वह उत्तर कोशल राज्य कहलाथा था। उत्तर कोशल राज्य के अंतर्गत सरयू पार मैदान में बहराइच, गोंडा, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया, बलरामपुर, श्रावस्ती, सिद्धार्थनगर, संत कबीर नगर महराजगंज एवं कुशीनगर जनपद हैं। 1865 में बस्ती जिले का जन्म होने के पहले गोंडा की सीमा वर्तमान गोरखपुर से मिलती थी। पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में कोसल में सारव और ऐक्ष्याकुओं का उल्लेख किया है। समूचा उत्तर कोसल गन्द के नाम से जाना जाता था। इसे गोनर्द, गोनद्ध, गोड्डा या गौड़ा कहा जाता था। इसी भूखंड में देविका नाम की सरयू की सहायक नदी हिमालय से निकलती है। सरयू की एक दक्षिणी धारा का नाम है जो देविका नदी बताई जाती है।

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आदि गौड क्षेत्र अथवा गोंडा प्राचीन कोसल का विशिष्ट अंश रहा है। कोसल राज्य के राजा इच्छ्वाकु, मांधाता, पुरुकुत्स, त्र्याण, भगीरथ, अंबरीश, दशरथ और राम के नाम विख्यात हैं। प्राचीन समय में गोंडा जनपद वनों से आच्छादित था, जो गोचर भूमि के लिए सुरक्षित था। गोंडा का प्राचीन नाम गोनर्द है। इसे प्रसिद्ध विद्वान कैयट और नागेश भट्ट ने भी सिद्ध किया है। महर्षि पतंजलि को इसीलिए गोनर्दीय कहा है।

गोनर्दीयस्तटवाह भाष्यकारस्तवाह इति- कैयट

गोनर्दीय पदं व्याचष्टे  इति भाष्यकार:- नागेश भट्ट

डा. श्री नरायन तिवारी कहते हैं कि आज का गोंडा अतीत काल में उत्तर कोशल के नाम से जाना जाता था। हिमालय पर्वत की शिवालिक श्रृंखला व सरयू-घाघरा के बीच की यह धरती ऋषियों मुनियों की तपोस्थली रही। इनकी दिन चर्या मुख्य रूप से तपस्या व गोपालन से जुड़ी थी। गोपालन की प्रचुरता के कारण पूरे उत्तर कोशल राज्य को गोनर्द कहा जाने लगा। इच्छ्वाकु की 58वीं पीढ़ी में उत्पन्न महाराजा दिलीप ने गोसेवा का व्रत लिया था और इसके लिए अचिरावती(राप्ती) और सरयू नदी के बीच का क्षेत्र सुरक्षित करा दिया था। गोनर्द का अर्थ ही होता है-गाव: नर्दन्ति अत्र इति गोनर्दम्।  अर्थात वह भूमि गायें रम्भाती और कुलेल करती हों उसे गोनर्द कहते हैं।

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अयोध्या की आध्यात्मिक व सांस्कृतिक विरासत के रूप में गोंडा का इतिहास रहा है। घाघरा, सरयू दो प्रमुख नदियों के साथ कुआनो, बिसुही, मनवर, चमनई, टेढ़ी(कुटिला) व चंदहा सहायक नदियां हैं। इसके अलावा कोंडर झील और अरगा झील गोंडा की प्राकृतिक छटा को और अद्भूद बनाती हैं। मनवर नदी के किनारे आरुणि उद्यालक ऋषि, कोंड़र झील के किनारे महर्षि पतंजलि, नचिकेता, अष्टावक्र, च्यवनि मुनि, सरयू के उत्तर जमथा गांव में महर्षि यमदग्नि, सरयू की पुइनी नामक धारा के दक्षिणी तट पर स्थित बनगांव में शौनक ऋषि, परसपुर के समीप सिंगरिया में ऋंगी ऋषि, करनैलगंज दक्षिण सकरौरा में अगस्य मुनि, सरयू के किनारे स्थित परास गांव में पाराशर ऋषि की तपोस्थली रही।

परसपुर के पास घाघरा व सरयू के संगम तट के पास गुरु नरहरि दास व राम चरित मानस के रचनाकार गोस्वामी तुलसी दास की जन्मस्थली भी जीवंत हो उठेगी। अयोध्या की शास्त्रीय सीमा के अंतर्गत आने वाला गोनर्द(अब गोंडा) प्राकृतिक रूप से अति सुंदर थी और वन व जल की प्रचुरता के कारण अयोध्या यानि कोसल राज की गोनर्दीय भूमि रही। 550 वर्षों के संघर्ष काल के बाद 22 जनवरी 2024 को जब भगवान राम बालरूप से लेकर राम दरबार के रूप में विराजमान होंगे तो गोंडा की धरती पर तप करने वाले ऋषियों की ऋचाएं भी जीवंत हो उठेंगी।

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